ललितपुर।
देश आजादी की 74वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी कर रहा है, ऐसे में उन लोगों को याद करना लाजिमी हो जाता है जिनके संघर्ष के चलते आज हम आजाद फिजा में सांस ले पा रहे हैं। देश की आजादी के लिए हर धर्म, समुदाय और वर्ग के लोगों ने एकजुट होकर लंबी लड़ाई लड़ी है, और इस संघर्ष में कलार समाज के लोग भी पीछे नहीं रहे। ऐसे ही एक थे भैंरो प्रसाद राय जी, जिन्हें लोग भैरों दद्दा और बार गांव के गांधी के नाम से आज भी याद करते हैं।
स्वतंत्रता के बाद ललितपुर में श्री भैरों प्रसादजी को आजादी के नायक की तरह सम्मान प्राप्त हुआ। और, वे सही मायने में इसके हकदार भी थे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित होकर वह स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए और 1930-31 में नमक सत्याग्रह में भाग लिया। उस दौरान अंग्रेजी शासन के सिपाहियों ने उन्हें बल्देवगढ़ से गिरफ्तार किया, जहां नमक आंदोलन पूरे जोरों पर चल रहा था। 1941 में स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें एक साल की कैद की सजा सुनाई गई। 1942 जेल से छूटने के बाद श्री भैरों प्रसादजी ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया जिस पर उन्हें गिरफ्तार कर आगरा जेल भेजा गया, जहां वह 11 महीने तक नजरबंद रहे।
जमींदार परिवार में जन्मे श्री भैरो प्रसादजी को झुकाने की अंग्रेजी शासन ने पुरजोर कोशिश की। उनकी जमींदारी छीन ली, कई बार उनके खिलाफ कुर्की की कार्रवाई की। इसके चलते भैरों प्रसादजी का परिवार भयंकर आर्थिक तंगी में फंस गया, यहां तक परिवार को मोटे अनाज की रूखी-सूखी रोटी खाकर दिन गुजारने पड़े, लेकिन इन हालात में भी वह आजादी के लिए अपने संघर्ष से डिगे नहीं।
स्व. श्री भैरों प्रसाद राय का जन्म 11 सितंबर, 1904 को ललितपुर के बार गांव के जमींदार श्री मूलचंद महाजन के परिवार में हुआ था। भैरों प्रसादजी की अल्पायु में ही उनके पिता का निधन हो गया था, लिहाजा उनका लालन-पालन माताजी की देखरेख में हुआ था। भैरों प्रसादजी की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही स्कूल से शुरू हुई लेकिन तीव्र बुद्धि के बाद भी पढ़ाई में उनका मन नहीं लगा और कक्षा तीन के बाद ही उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। इसके बाद वह जमींदारी का काम संभालने लगे। यह वह दौर था जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश की आजादी का संघर्ष एक जनआंदोलन का रूप ले रहा था और नौजवान वर्ग बहुत तेजी से इस आंदोलन से जुड़ता जा रहा था। इन्हीं नौजवानों में एक श्री भैरोंप्रसाद राय भी थे। गांधी और नेहरू जैसे नेताओं से प्रभावित होकर भैरों दद्दा ने कांग्रेस से जुड़कर स्वयं को देश के लिए समर्पित कर दिया।
आजादी के संघर्ष में कूदने के बाद भैरों दद्दा ने युवा टोली को साथ लेकर ललितपुर और झांसी जिले के गांव-कस्बों की गली-गली मे आजादी की अलख जलाई। इसी दौरान झांसी के एक अंग्रेज अफसर ने उन्हें चेतावनी दी कि अंग्रेजी शासन का विरोध करना बंद करें वरना उनकी जमींदार छीन ली जाएगी। लेकिन, आजादी के दीवाने कहां रुकने वाले थे भला। अंग्रेजी शासने उन्हें कई बार गिरफ्तार किया, उनकी जमींदारी छीन ली और उनके घर की तीन-तीन बार कुर्की भी की। लेकिन भैरों दद्दा और ही मिट्टी के बने थे। अंग्रेजों की ज्यातियां बढ़ने के साथ आजादी के लिए उनका संकल्प और मजबूत होता जा रहा था। 15 अगस्त, 1947 को भारत की आजादी की घोषणा हुई तो भैरों दद्दा खुशी से झूम उठे, उन्होंने कहा कि उन्हें जमींदारी छिनने का कोई गम नहीं, असली जमींदार तो हम अब हुए हैं।
स्वतंत्रता के बाद बार गांव के लोगों ने आजादी के लिए उनके संघर्ष और उनके जन-प्रेम को देखते हुए उन्हें बार गांव के प्रधान पर आसीन कराया। उन्होंने पूरे मन से गांव के लोगों की सेवा की और वहां नाले-पुलिया और सड़क समेत कई विकास कार्य कराए। आजादी के लिए भैरों दद्दा के संघर्ष और गांव के विकास की दिशा में उनके कार्यों को देखते हुए 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का ताम्रपत्र भेंट किया था। 26 अप्रैल 1980 को ग्राम बार में भैरों दद्दा का निधन हो गया।
भैरों दद्दा के तीन पुत्र थे, जिनके परिवार अब अलग-अलग जगह रहते हैं। बार गांव में फिलहाल द्ददा के पौत्र श्री विनोदचंद्र राय (पुत्र स्व. श्री रमेशचंद्र राय) अपने परिवार के साथ निवास करते हैं। उनका खेती और टैंट का कारोबार है। विनोदचंद्र राय के दो पुत्र हैं, बड़े पुत्र अकिंत राय सीए (चार्टर्ड एकाउंटेंट) हैं और भोपाल में रहते है, वहीं छोटा पुत्र अर्पित राय भी भोपाल में पढ़ाई कर रहा है। बार गांव में श्री विनोद राय अपनी पत्नी श्रीमती सुनीता राय के साथ निवास कर रहे हैं।
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