by Som Sahu December 16, 2017 घटनाक्रम, धरोहर 283
(गतांक से आगे)
वैसे तो किसी को स्वयं अपनी तारीफ नहीं करनी चाहिए, लेकिन मुझे गर्व होता है अपने आप पर, कि मैं आगरा में शिवहरे बिरादरी के विकास के दौर पहला स्मारक हूं। बहुतों को शायद न पता हो, तो बता दूं, कि मुझे पहले शिवहरे मंदिर कहा जाता था। अगली पीढ़ी के युवाओं ने ‘शिवहरे मंदिर’ नाम की सार्थकता को चुनौती देकर इसे ‘दाऊजी मंदिर’ कहने का आग्रह किया, जिस पर लंबी और तीखी बहसों के बाद समझौते के रुप में ‘शिवहरे मंदिर दाऊजी महाराज’ नाम स्वीकृत हुआ। इस मुद्दे पर दो पक्ष प्रकट हुए थे। एक पक्ष था बाबू गोपीचंदजी की यथास्थिति बनाए रखने की नीति के समर्थकों का और दूसरा पक्ष था परिवर्तन समर्थक युवाओं का जिनको पीढ़ी के वरिष्ठों और पिछली पीढ़ी के कतिपय कनिष्ठों का समर्थन और अनुमोदन प्राप्त था।
यह नई पीढ़ी थी बाहुबल, विद्याबल और चरित्र बल से सुसज्जित शिवहरे युवकों की, जो हरिया की बगीची के अखाड़े में कुश्ती-जोर-व्यायाम करते थे। वहीं जमा होकर पिछले दिन प्राप्त ज्ञान का आपस में बंटवारा करते थे। वहीं से बिरादरी में से कुरीतियों और बुराइयों को दूर करने का संकल्प करके समाज सुधार की योजना उन्होंने तैयार की और नगरभर के शिवहरे युवाओं को मिलाकर एक संगठन बनाया, जिसे नाम दिया ‘शिवहरे नवयुवक मित्र मंडल’।
शिवहरे नवयुवक मित्र मंडल का नाम इसलिए याद आ रहा है कि मैंने लंबे समय तक इस संगठन की गतिविधियों की मेजबानी की है, और इन युवाओं ने मेरे दोनों आंगनों के बीच बने सभाकक्ष की रौनक बढ़ाई। मेरा उद्देश्य यह बताने का भी है कि आजादी से ठीक पहले और बाद के काल में इस संगठन ने किस प्रकार समाज के उज्ज्वल भविष्य की राह निर्धारित की। शिवहरे नवयुवक मित्र मंडल ने सबसे पहले यथास्थितिवादियों की इस भ्रांति को तोड़ा कि उन्होंने जो कुछ कर दिया, उससे ऊपर और कुछ नहीं किया जा सकता और न ही इसकी कोई जरूरत है। मित्र मंडल के सदस्यों ने पहला काम यह किया कि परंपरागत आबकारी व्यवसाय से खुद को सदैव के लिए अलग कर अन्य कारोबारों, उद्यमों और व्यवसायो में लगा दिया। परिवारों की महिलाओं से रसोई में लहसुन, प्याज और मांस-मछली न पकाने का अनुरोध किया। असर यह हुआ कि बिरादरी के अनेक पुरुष व परिवार निरामिष भोजी हो गए और ज्यादातर महिलाओं ने अपने रसोईघरों में सामिष पकवानों को निषिद्ध कर दिया। इन नवयुवकों ने अपने घरों में धार्मिक ग्रंथों विशेषकर रामचरित मानस, सुखसागर, प्रेमसागर आदि की मोटे अक्षरों में छपी पुस्तकों को लाकर रखा और उनके आग्रह पर घर की महिलाओं ने इन ग्रंथों को पढ़ने के लिए पढ़ना-लिखना सीखा। सच तो यह है कि समाज में महिलाओं में शिक्षा के प्रसार-प्रचार में इस संगठन का यह बेहद अहम योगदान था। घर में ही पढ़ना-लिखना सीखी इन महिलाओं ने अपने बच्चों को शिक्षा की ओर उन्मुख करने का काम किया।
मित्र मंडल ने मेरे दोनों आंगनों के बीच बने सभाकक्ष में नियमित रूप से बिरादरी की साधारण बैठकें आयोजित कीं। इसके अलावा नियमित कीर्तन, संकीर्तनों और अखंड कीर्तनों व अखंडपाठों के भव्य आयोजनों से मेरी गरिमा का विकास किया। उसी दौर में शरद पूर्णिमा, जन्माष्टमी, दीपावली के बाद गोवर्धन और अन्नकूट महोत्सव, और होली मिलन जैसे आयोजनों की भव्यता ने मेरी प्रतिष्ठा में चार चांद लगाने का काम किया। इन अवसरों पर मेरे परिसर में नगर के सभी क्षेत्रों से शिवहरे एकत्र होते थे। परिवारों के पुरुष सबसे पहले मेरे परिसर में आकर एक-दूसरे से होली मिलते थे, होली खेलते थे। यह आयोजन अत्यंत शालीनतापूर्ण होता था। शिवहरे नवयुवक मित्र मंडल के सदस्य मेरे परिसर में होली खेलने के बाद ही अन्यत्र होली खेलने निकलते थे। मित्र मंडल के सदस्यों ने घरों की वयस्क महिलाओं को मेरे परिसर में होने वाले धार्मिक आयोजनों और आरतियों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
अब अगले एपीसोड में मैं बताऊंगा कि शिवहरे नवयुवक मित्र मंडल की इन तमाम पहलों के क्या असर हुए, मित्र मंडल क्यों कमजोर पड़ा और कौन सी कोशिशें अधूरी रह गईं। तब तक इंतजार करें…।
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