July 26, 2025
शिवहरे वाणी, D-30, न्यू आगरा, आगरा-282005 [भारत]
समाचार साहित्य/सृजन

कुमार विश्वास की अनुशंसा पर इति शिवहरे को 51 हजार का ‘युवा गीतकार सम्मान’; आगरा में पीएचडी कर रहीं हैं ‘औरैया की गौरैया’; पढ़िये दिल को छू लेने वाले उनके 5 गीत

नोएड/आगरा।
अल्पायु में ही अपने गीतों के शिल्प, भाव-भाषा की परिपक्वता से अचंभित और अभिभूत कर देने वाली युवा कवयित्री-गीतकार सुश्री इति शिवहरे को 51 हजार रुपये के ‘युवा गीतकार सम्मान’ से विभूषित किया गया है। जाने-माने कवि कुमार विश्वास की अनुशंसा पर ललित फाउंडेशन द्वारा उन्हें यह सम्मान दिया गया।

ग्रेटर नोएडा स्थित होटल ‘गौर सरोवर प्रीमियर’ में आयोजित तीन-दिनी साहित्य अधिवेशन ‘अभिव्यंजना चतुर्थ’ के अंतिम दिन 21 जुलाई को पद्मश्री कवि श्री अशोक चक्रधर और कुमार विश्वास ने सुश्री इति शिवहरे को सम्मान स्वरूप 51 हजार का चेक और प्रशस्ति-पत्र भेंट किया। इस दौरान साहित्य-जगत की कई नामचीन हस्तियां मौजूद रहीं। बता दें कि सुश्री इति शिवहरे को साहित्य में उनके योगदान के लिए ‘युवा गीतकार सम्मान’ दिया गया है। साहित्य जगत में अब ‘औरैया की गौरैया’ के रूप में मशहूर सुश्री इति शिवहरे महज 23 वर्ष की आय़ु में 60 से अधिक गीतों की रचना कर चुकी हैं, और इनमें से ज्यादातर गीत बहुत लोकप्रिय हुए हैं। ‘कुंडली’ उनका हस्ताक्षर-गीत है जिसे कई नामचीन कवियों और गायकों ने सुर दिए हैं, यहां तक कि इस गीत का नाट्य मंचन भी किया जा चुका है। इसके अलावा भी इति के दर्जनों ऐसे गीत हैं, जो अपने विषय, शिल्प, भाव-संवेदना और भाषा के प्रवाह व सौंदर्य से सुनने-पढ़ने वालों के मन में अमिट छाप छोड़ते हैं। सोशल मीडिया पर भी उनके गीतों का ‘जादू’ साहित्य-प्रेमियों के सिर चढ़कर बोलता है। यही वजह है कि उनकी फैन-फालोइंग लगातार बढ़ती जा रही है।

सुश्री इति शिवहरे ने शिवहरेवाणी से बातचीत में ‘युवा गीतकार सम्मान’ से नवाजने के लिए ललित फाउंडेशन औऱ कवि कुमार विश्वास का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि इस सम्मान से वह गौरवान्वित महसूस कर रही हैं। उन्होंने कहा कि, ‘सफलता का कोई शॉर्ट-कट नहीं होता। अगर आप बिना किसी छल के, अपनी पूरी ईमानदारी और निष्ठा से काम करते हैं तो वहां पहुंच सकते हैं जहां आप पहुंचना चाहते हैं।‘ बता दें कि सुश्री इति शिवहरे तीन बार यूजीसी-नेट परीक्षा क्वालीफाई कर असिस्टेंट प्रोफेसर बनने की अर्हता प्राप्त कर चुकी हैं। औरैया में ट्रांसपोर्ट कारोबारी श्री सुशील शिवहरे की होनहार पुत्री इति शिवहरे वर्तमान में आगरा के दयालबाग डीम्ड यूनीवर्सिटी से हिंदी साहित्य में ‘अमिता दुबे के कथा साहित्य में संवेदना और शिल्प’ शोध (पीएचडी) कर रही हैं।

सुश्री इति शिवहरे को पहले भी हिंदी साहित्य के कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है, जिनमें इंदौर में मातृभाषा उन्नयन संस्था की ओर से ‘भाषा सारथी सम्मान’ प्रमुख है। आगरा में शिवहरे समाज एकता परिषद की ओर से गत वर्ष उन्हें ‘शिवहरे साहित्य रत्न’ सम्मान से विभूषित किया गया था।

यहां हम सुश्री इति शिवहरे के पांच गीत भी प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि आप साहित्य-प्रेमी हैं तो निश्चय ही ये गीत आपके मन को छू जाएंगे, शर्त इतनी है कि इन्हें पूरे एकाग्र मन से पढ़ेः-
(1)
ब्याह कर मुझको, दिया
सुंदर, नवल परिवेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!
द्वार-तक कर दो विदा तुम, अंक में अपने उठाए।
ये अनागत-काल में अधिकार मिल पाए न पाए!
है बहुत संभव कि अब व्यवहार में अंतर रहेगा।
मंद-गति, संकोचमय सिमटा हुआ सा स्वर रहेगा।
यह नियति है, कष्ट का,
लाना न कोई लेश बाबा।
जा रही परदेश बाबा!
दूर क्या, नजदीक जाने से अकेले, रोकते थे!
दृष्टि से ओझल हुई तो घर-भरे को टोकते थे।
किस तरह,पाषाण हिय कर, हो खड़े प्रणिपात में तुम?
सर्वदा को सौंपते, मुझको अपरिचित हाथ में तुम।
किसलिए ये रख रहे हो,
आज दो-दो वेश बाबा?
जा रही परदेश बाबा!
हो नहीं, कृशकाय चिंता में, स्वयं का ध्यान रखना!
हाँ! रहूँगी मैं सुखी-सानंद तुम निश्चिंत रहना।
परिजनों के प्रति, मृदुलता, शिष्टता, से ही रहूँगी।
अब न झगडूँगी किसी से, नेह में सब बाँध लूँगी।
भेजते रहना कुशल-मंगल,
सुखद-संदेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!

(2)
हे! मनस्वी मानवी,
अवबोध का आह्वान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!
रज सने पग धर गए वो थान देवालय बनाया।
राजमहलों में न सुख वनवास में एश्वर्य पाया।
तुम ‘उपेक्षा’ को ‘अपेक्षा’ में बदलना जानती हो।
हाय! फिर भी बन ‘दया का पात्र’ जीना चाहती हो।
पूज्य, विदुषी-वामिनी,
अभिनत्व का अवसान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!
सोचती हो? मूकदर्शक, ये तुम्हें सहयोग देंगे।
रक्त की अंतिम तुम्हारी बूंद भी वे सोख लेंगे।
बिन कहे कब स्वत्व पाया? माँगना पड़ता यहाँ है।
रो न दे शिशु पूर्व इसके क्षीर भी मिलता कहाँ है!
अब उठो! तेजस्विनी,
स्वयमेव का सम्मान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!
भावनी, भव्या, भवानी के हृदय में भय बसेंगे?
चक्षुओं में दीप जिनके क्या उन्हें ये तम डसेंगे?
काल के कटु पृष्ठ पर सम्भावनाएं जोड़नी हैं।
तुम वही जिसको समूची वर्जनाएं तोड़नी हैं।
“तमसो मा ज्योतिर्गमय” का,
हर्षमय जय-गान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!
(3)
कुंडली तो मिल गई है,
मन नहीं मिलता, पुरोहित!
क्या सफल परिणय रहेगा?
गुण मिले सब जोग वर से, गोत्र भी उत्तम चुना है।
ठीक है कद, रंग भी मेरी तरह कुछ गेंहुआ है।
मिर्च मुझ पर माँ न जाने क्यों घुमाये जा रही है?
भाग्य से है प्राप्त घर-वर, बस यही समझा रही है।
भानु, शशि, गुरु, शुभ त्रिबल, गुण-दोष,
है सब-कुछ व्यवस्थित,
अब न प्रति-पल भय रहेगा?
रीति-रस्मों के लिए शुभ लग्न देखा जा रहा है।
क्यों अशुभ कुछ सोचकर, मुँह को कलेजा आ रहा है?
अब अपरिचित हित यहाँ मंतव्य जाना जा रहा है।
किंतु मेरा मौन ‘हाँ’ की ओर माना जा रहा है।
देह की हल्दी भरेगी,
घाव अंतस के अपरिमित?
सर्व मंगलमय रहेगा?
क्या सशंकित मांग पर सिंदूर की रेखा बनाऊँ?
सात पग भर मात्र चलकर साथ सदियों का निभाऊँ?
यज्ञ की समिधा लिए फिर से नए संकल्प भर लूँ?
क्या अपूरित प्रेम की सद्भावना उत्सर्ग कर दूँ?
भूलकर अपना अहित-हित,
पूर्ण हो जाऊँ समर्पित?
ये कुशल अभिनय रहेगा!
क्या सफल परिणय रहेगा?

(4)
तुम मुझे लौटा रहे उपहार,
इससे क्या मिलेगा?
चित्र तो लौटा दिए चलचित्र के छलछंद का क्या?
पुष्प लेकर आ गए हो किंतु उसकी गंध का क्या?
चिट्ठियाँ मसिमय रही हैं, शब्दमय कुछ भी नहीं था?
क्या घड़ी ही दी तुम्हें, मेरा समय कुछ भी नहीं था?
दो कलम या सूखते कचनार,
इससे क्या मिलेगा?
बाँह से तुम नाम मेरा, द्वार से पद-छाप धोते।
इन सभी से आत्मा के चिह्न थोड़ी नष्ट होते!
वृक्ष पर बाँधे गए धागे नहीं विश्वास भी थे।
याद होगा कुछ इन्हीं में निर्जला उपवास भी थे।
मत करो मृदु-भाव का व्यापार ,
इससे क्या मिलेगा?
मुद्रिका देकर भला क्या बंधनों से मुक्त होगे!
जो तुम्हारी उँगलियों में स्पर्श मेरा, दे सकोगे?
दे सको तो भावनाओं के मुझे भग्नांश दे दो!
तुम मुझे मेरा वही निश्छल, छलित हृदयांश दे दो
दी विदा में मूर्ति हृदयाकार,
इससे क्या मिलेगा?
(5)
तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो,
करो अब अनुगमन है।
यह मिलन, अंतिम मिलन है!
किस तरह की भेंट यह, अलगाव देकर जा रही है!
यह तुम्हारी गति हमें, ठहराव देकर जा रही है।
तुम न लाना आँख में पानी, हमारा मन जलेगा।
टूटता अनुबंध है, अनुराग कुछ दिन तो छलेगा।
स्वप्न की मृत देह पर से,
जागरण का अवतरण है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
जब कि पहनाने अँगूठी हाथ माँगोगे कभी तुम।
या रजत नूपुर किसी के पाँव बाँधोगे कभी तुम।
याद आएगा ‘कुशा’ की मुद्रिका भर चाहती थी।
एक पगली ‘दूब’ की पायल पहनकर नाचती थी।
एक मन से ही किसी का,
निर्गमन है, आगमन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है।
क्या हुआ जो दे न पाए प्रेम, ये ही सोच लेंगे।
वृक्ष सब देते न छाया, और कुछ तो धूप देंगे।
प्रार्थना कुछ कर न पाईं, याचना कर क्या मिलेगा?
लो विदाई हर्षमय तुम , दुख मनाकर क्या मिलेगा?
सोचना क्या, यह बिछड़ना,
और मिलना तो चलन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!

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