सुरेश आर्य
आज श्रद्धेय डा. काशीप्रसाद जायसवाल का जन्मदिवस है। इस महान इतिहासकार, कानूनविद, मुद्राशास्त्री, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं पुरातत्ववेत्ता को भारत रत्न दिए जाने की मांग लंबे समय से हो रही है। जायसवाल समाज के गौरव डा. काशीप्रसाद जायसवाल को जायसवाल क्लब और उससे जुड़े अनुषांगिक संगठन भी यह मांग समय-समय पर करते रहे हैं।
जायसवाल समाज के गौरव डा. काशीप्रसाद जायसवाल गणना भारत के प्रख्यात इतिहासकारों में होती है। उन्होंने इतिहास लेखने के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। उन्होंने हिंदू प़ॉलिटी, इंपीरियल हिस्ट्री ऑफ इंडिया, अंधकार युगीन भारतीय इतिहास, नेपाल का विवरणात्मक इतिहास और अनेक विश्व विख्यात ग्रंथों की रचना की। वह सही मायने में भारतीय इतिहास के ज्योतिर्धर थे।
27 नवंबर, 1881 को उप्र की पावन माटी मिर्जापुर में बाबू महादेव प्रसाद जायसवाल के परिवार में उनका जन्म हुआ। 4 अगस्त 1937 को देहावसान हो गया। 56 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में डा. काशीप्रसाद जायसवाल ने अपने ज्ञान और लेखन के माध्यम से देश और समाज को इतना कुछ दे दिया, कि भारतीय समाज हमेशा उनका ऋणी रहेगा।
आपके पिता बाबू महादेव प्रसाद जायसवाल लाह और चिवड़े के बड़े व्यापारी थे। डा. काशीप्रसाद की प्रारंभिक शिक्षा एक निजी शिक्षक की देखरेख में घर पर ही हुई। उन्होंने मिर्जापुर से लंदन मिशन स्कूल में एंट्रेस की परीक्षा प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण की । प्रारंभिक शिक्षा के बाद वे वाराणसी के क्वींस कालेज में पढ़े और उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए लंदन चले गए।
1906 में जायसवालजी मात्र 25 वर्ष की आयु में इंग्लैंड रवाना हुए और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला पाया। वहीं से उन्होंने इतिहास से एमए करते हुए डेविस स्कॉलर के रूप में चीनी भाषा का अध्ययन किया। उन्होंने बार के लिए परीक्षा में भी सफलता प्राप्त की। वहीं अध्ययन के साथ भारत की आजादी के लिए लाला हरदयाल औऱ वीर सावरकार के संपर्क में आए। भारत लौटने पर उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रवक्ता बनने की कोशिश की लेकिन राजनीतक आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें कामयाबी नहीं मिली। अंततः उन्होने वकालत करने का निश्चय किया। 1911 में कोलकाता में वकालत प्रारंभ की। 1914 में वे पटना हाईकोर्ट में आ गए। 1899 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के उपमंत्री बने। उनके ‘कोशाम्बी’, ;लार्ड कर्जन की वक्तृता’ और ‘बक्सर’ जैसे शोधपरक लेख नागरी प्रचारिणी पत्रिका में छपे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सरस्वती के संपादक बनते ही 1903 में काशीप्रसाद जाययवाल के चार लेख, एक कविता और ‘एक उपन्यास’ नाम से एक सचित्र व्यंग्य सरस्वती में छपे।
आपकी प्रकाशित पुस्तकों के नाम हिंदू पॉलिटी, एन इंपीरियल हिस्ट्री ऑफ इंडिया, एक क्रोनलॉजी एंड हिस्ट्री ऑफ नेपाल हैं। हिंदू पॉलिटी का हिंदी अनुवाद (श्री रामचंद्र वर्मा) हिंदू राजतंत्र के नाम से नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी से प्रकाशित हुआ। 20वीं सदी में जिन भारतीय विद्वानों ने विमर्श की दिशा को प्रभावित करने में अग्रणी भूमिका निभाई, उनमें काशी प्रसाद जायसवाल अग्रणी हैं।
उनके जीवन के कई आयाम हैं। उनकी लेखनी की व्यापकता को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि उनका कौन सा रूप प्रमुख है। राष्ट्रवादी इतिहासकार, साहित्यकार, पुरातत्वविद, भाषाविद, वकील या पत्रकार। कभी-कभी विवादास्पद और व्यंग्यात्मक सामग्री लिखते समय उन्होंने ‘जायसवाल महाब्राह्मण’ औऱ ‘बाबा अग्निगिरी’ के छद्म नाम का भी प्रयोग किया।
उन्होंने पटना हाईकोर्ट में आजीवन वकालत की। वे इनकम टैक्स के विख्यात वकील थे। दरभंगा और हथुआ महाराज जैसे लोग उनके मुवक्किल थे और बड़े-बड़े मुकदमों में जायसवाल प्रिवी कौंसिल में बहस करने इंग्लैंड भी जाया करते थे।
उन्होंने मिर्जापुर से प्रकाशित कलवार गजट (1906) और पटना से प्रकाशित पाटिलीपुत्र (1914-15) पत्रिका का संपादन भी किया और जर्नल ऑफ बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी के आजीवन संपादक भी रहे। इसके अलावा अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए जिनमें टैगोर लेक्चर सिरीज (कोलकाता 1919), ओरिएंटल कांफ्रेंस (पटनां/बड़ोदा, 1930/1933), रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन (1936, पहले भारतीय जिन्हें यह असर मिला) अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, इंदौर (1935) इत्यादि महत्वपूर्ण हैं।
पटना म्यूजियम की स्थापना भी आपकी ही प्रेरणा से हुई। 1935 में रायल एशियाटिक सोसायटी ने लंदन में भारतीय मुद्रा पर व्याख्यान देन के लिए आपको आमंत्रित किया। आप इंडियन ओरियंटन कांफ्रेंस (छठा अधिवेशन, बडौदा), हिंदी साहित्य सम्मेलन, इतिहास परिषद (इंदौर अधिवेशन), बिहार प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन (भागलपुर अधिवेशन) के सभापति रहे। स्वर्गीय राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के सहयोग से आपने इतिहास परिषद की स्थापना की। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना से पहले ही जायसवाल प्राचीन भारत की हिंदूवादी व्याख्या कर रहे थे। उनकी बहुचर्चित हिंदू पॉलिटी राष्ट्रवादियों के आंदोलन के लिए गीता समझी जाती थी। उनकी विद्वता से प्रभावित होकर अंग्रेजी हुकूमत के समय ही पटना विश्वविद्यालय ने 1936 में उन्हें पीएचडी की मानक उपाधि प्रदान की थी। प्राचीन भारतीय राजव्यवस्था पर रची गई हिंदू पॉलिटी के लिए भारत-विद्या (इंडोलॉजी) स्वर्गीय काशी प्रसाद जायसवाल की ऋणी है।
कहते हैं भारतीय इतिहास में 1905 से आगे का काल उग्रपंथी राजीति का काल था। बंगाल और महाराष्ट्र में क्रांतिकारी संस्थाओं का जाल बिछा हुआ था। इस आंदोलन पर हिंदू पुनरुत्थावाद का रंग चढ़ा था। उसी दौरान बंगाल की सरकार ने उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग में अपने पद से त्यागपत्र देने को बाध्य कर दिया था।
भारतीय इतिहासलेखन की प्रवृत्तियों के दृष्टिकोण से 1920-1930 के दशक में लिखने वाले इतिहासकारों पर राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव था जो उनके एतिहासिक चिंतन में प्रतिबिंबित होता था। काशी प्रसाद जायसवाल जैसे विद्वान मुय रूप से राजनेतिक और राजवंशीय इतिहास लिखते रहे, परंतु उनकी व्याख्यायें उन्होंने राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से कीं।
काशी प्रसाद जायसवाल ने प्राचीन भारत का चित्रण अपेक्षाकृत अपरिवर्तनसील समाज के रूप में किया। यद्यपि उन्होंने जमीन में निजी स्वामित्व की बात कर एशियाई उत्पादन प्रणाली को खंडित भी किया। उनकी दृष्टि में स्थिरता का आधार प्राचीन आर्य संस्कृति थी। इसलिए साहित्यिक स्रोतों के काल को यथासंभव अधिक से अधिक पीछे ले जाने की कोशिश की और यह दिखलाया कि भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल और सार्थक पक्ष पूर्णतः देशी मूल के थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति का आध्यात्मिक रूप से विश्लेषण किया गया और कहा कि यह भौतिकवादी पाश्चात्य सभ्यता के विपरीत थी। इस आधार पर निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति पश्चिम संस्कृति से श्रेष्ठ थी। राष्ट्रवाद से प्रभावित ऐतिहासिक व्याख्या की एक और विशेषता अतिप्राचीन काल से ही देश की राजनीतिक एकता पर जोर देने की प्रवृत्ति थी एवं प्राचीन भारत में गणतंत्र एवं मंत्रिपरिषद आदि के अस्तित्व की प्रासंगिकता पर बल दिया गया जिससे राष्ट्रीयता की विचारधारा को बल मिला। काशी प्रसाद जायसवाल की रचनाओं में भी ये बातें स्पष्ट रूप से दिखती हैं।
इनके इतिहास लेखन में प्राचीन काल को भरपूर समृद्ध एवं सामान्य संतुष्टि का काल मानने की प्रवृत्ति थी, जिस पर भारतीय का गर्व करना उचित था। उनके दृष्टिकोण में असली भारतीय सांस्कृतिक रूप हिंदुत्व ही था। भारत की सभी खूबियां देशी मूल की थीं। इस तरह की ऐतिहासिक व्याख्या जिसे हिंदू राष्ट्रवाद से प्रेरित कहना ही सबसे उपयुक्त होगा, आज के एतिहासिक लेखन में भी प्रभावशाली धारा के रूप में विद्यान है।
(लेखक के एक प्रकाशित लेख का संक्षिप्तीकरण)
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