भारतीय इतिहास में जब भी महान योद्धाओं की बात होती है ‘सुल्तान-उल-कौम’ सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया का नाम सबसे ऊपर आता है। बाबा जस्सा सिंह अहलूवालिया ‘सिख संघ’ के शासनकाल में एक प्रमुख सिख नेता हुए, जो ‘दल खालसा’ के सर्वोच्च नेता होने के साथ ही ‘अहलूवालिया मिस्ल’ के मिस्लदार भी थे। ये वही दौर था जो 1716 में बंदा सिंह बहादुर की मृत्यु के समय से 1801 में सिख साम्राज्य की स्थापना तक चला। बाबा जस्सा सिंह अहलूवालिया ने ही सन 1772 में कपूरथला राज्य की स्थापना की थी।
पंजाब पर शासन करने वाले जस्सा सिंह ने अपनी बहादुरी और नेतृत्व कुशलता के बल पर मुगलों को दिन में तारे दिखा दिये थे। सन 1783 में ऐसा पहली बार हुआ, जब सिख सेना ने मुग़ल बादशाह शाह आलम को घुटनों पर ला दिया और लाल क़िले पर झंडा (केसरी निशान साहिब) लहराया था। आज भी जस्सा सिंह अहलूवालिया की कई वीर गाथाएं लोगों को प्रेरित करती हैं।
जन्म और बचपन
जस्सा सिंह अहलूवालिया का जन्म 3 मई 1718 को लाहौर (अब पाकिस्तान) के पास अहलू गांव में हुआ था। मूल रूप से उन्हें जस्सा सिंह कलाल के रूप में जाना जाता है, लेकिन उन्होंने अपने पैतृक गांव अहलू की वजह से अपना सरनेम अहलूवालिया रख लिया था। इन्होंने बचपन में ही ‘युद्ध कला’ में महारत हासिल कर ली थी जिसे देखते हुए 1748 में नवाब कपूर सिंह ने जस्सा सिंह आहलुवालिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
2200 हिंदू महिलाओं को मुगलों के चंगुल से बचाया
नवाब कपूर सिंह के मार्गदर्शन में उनके सैन्य और राजनीतिक करियर की शुरूआत हुई और उन्हें जल्द ही सिख नेताओं की पहली पंक्ति के नेताओं में गिना जाने लगा। सन 1748 में नवाब कपूर सिंह की सलाह पर 65 समूह जो अस्तित्व में आए थे, उन्हें फिर से 11 समूहों में बांटा गया और 11 समूहों की सभा को ‘दल खालसा’ नाम दिया गया था। इसी दौरान जस्सा सिंह को उनकी अद्भुत क्षमता के कारण ‘सिखों का कमांडर’ नियुक्त कर दिया गया। सन 1761 में जस्सा सिंह आहलुवालिया के कुशल नेतृत्व में सिखों ने ‘पानीपत की लड़ाई’ से लौट रहे अहमद शाह अब्दाली पर हमला किया और 2200 हिंदू महिलाओं को उसके चंगुल से रिहा कराकर सकुशल उनके घर पहुंचाया।
‘पानीपत की जंग’ जीतने के बाद दिल्ली का रुख
जस्सा सिंह आहलुवालिया के कुशल नेतृत्व में ‘पानीपत की जंग’ जीतने के बाद इनका निशाना दिल्ली था, इसके लिए बाबा बघेल सिंह, जस्सा सिंह आहलुवालिया और जस्सा सिंह रामगढ़िया ने मिलकर एक रणनीति बनाई। यूं तो ये तीनों अलग-अलग क्षेत्र से थे, लेकिन जब इस युद्ध की बारी आई तो ये तीनों एक हो गए और इनकी सेना भी एक हो गई। बाबा बघेल सिंह, जस्सा सिंह आहलुवालिया और जस्सा सिंह रामगढ़िया लगातार दुश्मनों को पराजित करते हुए आ रहे थे, इसलिए इनकी सेना ने जल्द ही यमुना तक अपने पांव फैला लिए। पानीपत के तृतीय युद्ध में अहमद शाह अब्दाली से पराजित होने के बाद मराठों की शक्ति बेहद कम हो गई थी और अंग्रेज़ धीरे धीरे दिल्ली में अपनी जगह बनाने में लग गये। इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर सिख सेनाओं ने बार-बार यमुना पार कर दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण करने शुरू कर दिये. दिल्ली के लाल क़िले पर कब्ज़ा करने से पहले बाबा बघेल सिंह और जस्सा सिंह आहलुवालिया ने गंगा-यमुना के बीच के कई क्षेत्रों जैसे अलीगढ़, टुंडला, हाथरस, खुर्जा और शेखूबाद आदि पर आक्रमण कर वहां के नवाबों से लगान वसूला और उनकी धन-धौलत पर कब्ज़ा कर लिया। इस धन में से जस्सा सिंह आहलुवालिया ने कुछ राशि अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के कारण 1762 में तबाह हुए श्री दरबार साहिब, अमृतसर के निर्माण के लिए भेज दी।
मुगल सम्राट शाह आलम की बेचैनी
दिल्ली पर सिखों के बार-बार आक्रमण ने मुगल सम्राट शाह आलम को परेशान कर दिया। इस संबंध में उसने अपने वजीरों को सिखों से बातचीत के लिए कहा, लेकिन इसका कोई हल न निकला। इसके बाद सिख सेना ने 12 अप्रैल, 1781 को यमुना पार की और दिल्ली से 32 मील दूर बागपत पर आक्रमण कर दिया और विजयी अभियान को जारी रखते हुए 16 अप्रैल, 1781 को दिल्ली के शाहदरा और पड़पड़गंज पर भी हमला बोल दिया।
ऐसे पड़ा तीस हज़ारी’ नाम
8 अप्रैल, 1783 को जस्सा सिंह आहलुवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया और बाबा बघेल सिंह की अगुवाई में 40 हज़ार सैनिक दिल्ली के बुराड़ी घाट को पार करते हुए मुग़लों की नगरी दिल्ली में दाखिल हुए। इस दौरान आहलुवालिया के निर्देश पर सेना को 3 हिस्सों में विभाजित किया गया। 5000 सिपाहियों को ‘मजनूं के टीले’ पर तैनात किया और 5000 सिपाहियों की दूसरी टुकड़ी ‘अजमेरी गेट’ पर तैनात कर दी। बाकी बची 30 हज़ार की सेना जिसमें अधिकतर घुड़सवार थे, को ‘सब्जी मंडी’ व ‘कश्मीरी गेट’ के बीच के स्थान पर खड़ा कर दिया। इस इलाके को आज ‘तीस हज़ारी’ के नाम से जाना जाता है। ये नाम ‘लाल क़िले’ पर आक्रमण करने वाले 30 हज़ार सिख सैनिकों के कारण दिया गया था।
सिख सेना दिल्ली के मल्कागंज, मुगलपुरा और सब्ज़ी मंडी में फैल गई। सिखों के दिल्ली में घुसने की ख़बर सुनकर मुग़ल बादशाह शाह आलम घबरा गया और उसने मिर्ज़ा शिकोह के नेतृत्व में महताबपुर क़िले पर सिख सेना को रोकने की कोशिश की. लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ी। पराजित होने के बाद शाह आलम वहां भाग गया और लाल क़िले में जाकर छिप गया। इसके बाद ‘वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह’ के उद्घोष के साथ सिख सेना ‘लाल क़िले’ की ओर बढ़ी और दूसरी तरफ अजमेरी गेट पर तैनात सिख सेना ने शहर पर आक्रमण कर दिया। लेकिन मुगल सेना युद्ध करने की बजाय छिप गई।
लाल क़िले पर फहराया केसरी
11 मार्च को सिख सेना लाहौरी गेट और मीना बाज़ार को पार करती हुई लाल क़िले के ‘दीवान-ए-आम’ पहुंच गई और वहां कब्ज़ा कर लिया। जस्सा सिंह आहलुवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया और बाबा बघेल सिंह के नेतृत्व वाली सिख सेना ने ‘दीवान-ए-आम’ पर कब्ज़ा करने के बाद ‘लाल क़िले’ के मुख्य द्वार पर ‘खालसा पंथ’ का केसरी निशान साहिब (झंडा) फहरा दिया। ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ था, जब सिख सेना ने लाल क़िले पर कब्ज़ा किया था। इस दौरान जब शाह आलम ने देखा कि सिखों ने दीवान-ए-आम पर कब्ज़ा कर लिया है तो वो अपने वकील रामदयाल और बेगम समरू के साथ अपने जीवन की भीख मांगने लगा। बेगम समरू बेहद मंझी हुई राजनीतिज्ञ थी, इसलिए उसने तुरंत ही जस्सा सिंह आहलुवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया और बाबा बघेल सिंह को अपना भाई बना लिया और दो मांगें उनके सामने रख दीं। पहली मांग- ‘शाह आलम का जीवन बख्श दिया जाए’ और दूसरी मांग- ‘लाल क़िला उसके कब्ज़े में रहने दिया जाए’।
बेगम समरू की इन मांगों के बदले में जस्सा सिंह आहलुवालिया, जस्सा सिंह रामगढ़िया और बाबा बघेल सिंह ने भी 4 शर्तें रख दीं। वो सभी स्थान जहां गुरु साहिबान के चरण पड़े, जहां गुरु तेग बहादुर साहिब को शहीद किया गया और माता सुंदरी व माता साहिब कौर जी के निवास स्थानों का अधिकार सिखों को दिया जाए। बादशाह शाह आलम को कहा गया कि वो 7 स्थानों पर गुरुद्वारा साहिबान के निर्माण के आदेश जारी करे। गुरुद्वारों के निर्माण तथा अन्य खर्चों की पूर्ति के लिए कर की वसूली में से 6 आने प्रति रुपया उन्हें दिया जाए और जब तक गुरुद्वारों का निर्माण पूरा नहीं हो जाता, तब तक 4 हज़ार सिख सैनिक दिल्ली में ही रहेंगे। बादशाह शाह आलम ने सिखों की सभी मांगें मान ली। इस दौरान बाबा बघेल सिंह गुरुद्वारों के निर्माण के लिए दिल्ली में ही रुके रहे। वहीं, जस्सा सिंह आहलुवालिया व जस्सा सिंह रामगढ़िया ‘दीवान-ए-आम’ का 6 फुट लंबा, 4 फुट चौड़ा और 9 इंच मोटा पत्थर का तख्त उखाड़कर घोड़े के पीछे बांधकर अपने साथ अमृतसर ले गए। ये तख्त आज भी दरबार सिंह, अमृतसर के नज़दीक बने रामगढ़िया बुर्ज में रखा हुआ है।
hindi.scoopwhoop.com से साभार
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