लखनऊ/आगरा।
एक दौर था जब शराब के कारोबार में जायसवाल-शिवहरे समाज लगभग एकाधिकार की स्थिति में था। उत्तर प्रदेश में सभी बड़े शराब कारोबारी इसी समाज से हुआ करते थे। धीरे-धीरे सरकार की शराब नीतियों में इस प्रकार के बदलाव हुए, कि अन्य लोग भी इस कारोबार में आने लगे। आज लगभग सभी समाज के लोग इस काम में हैं, और सबसे बड़ी बात यह हुई है कि अब इस काम को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता। मगर सरकार के राजस्व प्राप्ति के निरंतर बढ़ते लक्ष्यों के चलते कारोबारी के प्रॉफिट घटते जा रहे हैं। स्थिति यह है कि जायसवाल-शिवहरे समाज के कारोबारी अब इसे काम से मुंह मोड़ने लगे हैं। वे या तो अपने काम बदल रहे हैं, या अपने बच्चों को नए व्यापार में लगा रहे हैंं।
उत्तर प्रदेश के शराब कारोबार में पोंटी चड्ढा के उदभव से पहले जायसवाल और आगरा जैसे कुछ जिलों में शिवहरे कारोबारियों का लंबे समय तक दबदबा रहा है। बात नब्बे के दशक की है। उस वक्त उत्तर प्रदेश के शराब व्यापार पर आठ या नौ व्यापारियों जैसे बाबू किशनलाल, बद्री प्रसाद जायसवाल आदि के सिंडिकेट का सिक्का चलता था। लेकिन इस ग्रुप में सबसे बड़ा नाम था जवाहर जायसवाल का जो लिकर किंग के नाम से भी जाने जाते थे। साल 1999 से 2004 तक सांसद रहे जवाहर जायसवाल दावा करते हैं, “1993 से लेकर 2000 तक मेरे ग्रुप के पास 22 ज़िले थे। इतना बड़ा बिज़नेस हिंदुस्तान में कभी किसी के पास नहीं रहा।” नब्बे के दशक में यूपी में सरकारी नीतियों, शराब के दाम और व्यवस्था पर दख़ल रखने वाले जवाहर जायसवाल बताते हैं कि उनके पास करीब 10,000 दुकानें हुआ करती थीं।
शराब के व्यापार पर हमेशा से जायसवालों (और कहीं-कहीं शिवहरे भी) का ज़ोर रहा है। जवाहर जायसवाल को ये बिज़नेस विरासत में मिला। वो 1972 में बिज़नेस में आए और अगले आठ सालों में पूरे बनारस पर उनका एकाधिकार सा हो गया। जवाहर जायसवाल कहते हैं, “50 साल पहले तक हमें कलाल बोला जाता था। कलाल मतलब जो कलाली का बिज़नेस करता है। कलाली मतलब शराब। कलाल को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था।” लेकिन वक्त बदला और शराब के बिज़नेस पर उनका एकाधिकार ऐसा हुआ कि व्यापार से जुड़े लोग आज भी उनके दौर को याद करते हैं।
जवाहर बताते हैं, “हम लोगों की मीटिंग होती थी। एकसाइज मिनिस्टर बैठते थे। एक्साइज कमिश्नर बैठते थे। प्रमुख सचिव बैठते थे। यूपी के ठेकेदारों को बुलाया जाता था। उनसे पूछा जाता था कि आप बताइए किस सरकार की आमदनी बढ़ाई जाए जिससे आप लोगों को भी फ़ायदा हो। तो हम लोग बताते थे आप इस तरह कर दीजिए, और सरकार के लोग उसे मानते भी थे। नीतियां हम लोगों के कहने से बनाई जाती थीं।” आगे बताते हैं कि “हमारा बिज़नेस टेलीफोन से होता था। मैनेजर रहते थे। पार्टनर रहते थे। उनको इंस्ट्रक्शन देते रहते थे कि पाउच का एक रुपए रेट बढ़ा दो या कम कर दो।
क्या राजनीतिक मदद के बिना बिज़नेस किया जा सकता था, इस सवाल पर जवाहर जायसवाल कहते हैं, “नहीं कर सकते। अगर हम इतना बड़ा बिज़नेस कर रहे हैं तो मुख्यमंत्री और मंत्री स्तर तक बात करनी ही पड़ेगी। क्योंकि शराब के बिज़नेस में बहुत तरह की समस्या आती है और अगर सरकार सहयोग नहीं करेगी तो बिज़नेस चल ही नहीं पाएगा। इसलिए हमारे ताल्लुकात मुख्यमंत्री स्तर तक रहते थे।”
साल 1990 में बाज़ार में एकाधिकार के दौर में भानु जायसवाल शराब के व्यापार में आए। उन्होंने जवाहर जायसवाल के दौर को नज़दीक से देखा है। वो कहते हैं, “एमआरपी डिसाइड ये (जवाहर जायसवाल) करते थे। मैन्युफ़ैक्चरिंग पॉलिसी, ब्रांडस प्रॉफ़िट…सब ये डिसाइड करते थे। सब कुछ इनके हाथ में था।” उन दिनों दुकानों की नीलामियां हुआ करती थीं। रसूख वाले शराब व्यापारी पैसे और ताक़त के जोर पर पांच या सात दुकानें छोड़िए, ज़िले की सभी दुकानें खरीद लिया करते थे।
इन बिंदुओं से समझें कारोबार में बदलाव
• शराब के व्यापार पर हमेशा से जायसवाल-शिवहरे समाज का जोर रहा है।
• 1993 से 2001 तक जवाहर जायसवाल का दबदबा रहा. वो लिकर किंग के नाम से जाने जाते थे।
• साल 2000 में राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी. एक्साइस मंत्री थे सूर्य प्रताप शाही।
• शराब व्यापारियों की मनमानी ख़त्म करने के लिए साल 2001-02 में नई आबकारी नीति आई।
• शराब व्यापारी भानु जायसवाल के मुताबिक बड़े प्लेयर के रूप में पॉंटी चड्ढा का उदय साल 2000 में हुआ और साल 2012 तक उनका वर्चस्व रहा।
• मायावती और अखिलेश यादव सरकारों से नज़दीकियों के आरोपों के बीच पॉंटी चड्ढा का साम्राज्य फैलता गया।
• उत्तर प्रदेश में आज शराब व्यापार के लिए लॉटरी प्रक्रिया पूरी तरह ऑनलाइन है।
• शराब व्यापार से राज्य को पिछले साल 36 हज़ार करोड़ रुपए की आमदनी हुई. इस साल लक्ष्य 49 हज़ार करोड़को पार करने का है।
1990 में शराब के व्यापार में आए भानु जायसवाल गुज़रे नामों को याद करते हैं, “साल 1970-80 तक लाला मणिलाल, राजाराम जायसवाल, दीप नारायण जायसवाल, लाला रामप्रकाश जायसवाल, श्री नारायण साहू का बोलबाला था। 1980-90 तक लाला जगन्नाथ जी, लाला मणिलाल, विनायक बाबू थे। 1985-88 के बाद जवाहर लाल और गोरखपुर के बद्री बाबू जायसवाल आए।”
उत्तर प्रदेश आबकारी विभाग के पूर्व एडिशनल एक्साइस कमिश्नर केशव यादव समझाते हैं, “एक जिले में मान लीजिए देसी शराब की 300 दुकानें हैं। मान लीजिए एक दुकान की पिछले साल आमदनी एक करोड़ रुपए थी। ठेकेदार ठसके से कहता था कि वो उस दुकान के ज़्यादा से ज़्यादा इतने पैसे (लाख या हजार रुपये..जो भी राशि हो) पैसा देगा, इससे ज़्यादा नहीं। आप जिसको देना हो, दुकान दे दीजिए। ठेकेदार को पता था कि अधिकारी ये दुकान किसी को नहीं दे पाएंगे। छोटा ठेकेदार एक सीमा तक बोली लगाता था, फिर रुक जाता था। क्योंकि उनके पास मूलभूत सुविधा नहीं होती थी।”
“जब तक सरकारी सिस्टम नहीं था। तो 50-50 का रेशियो होता था नंबर 2 और नंबर एक के सामान का। छोटी छोटी मलिन बस्तियों में शराब बनती थी। पुलिस का पकड़ उतनी नहीं हो पाती थी। सरकार की व्यवस्था बहुत ढीली हुआ करती थी। यही लोग सब मैनेज करते थे।”
वक्त बदला और साल 2000 में राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी। एक्साइज मंत्री थे सूर्य प्रताप शाही। अधिकारियों के मुताबिक, शराब व्यपारियों की मनमानी रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। साल 1990 से 2002 तक प्रदेश के एक्साइज कमिश्नर रहे प्रवीर कुमार बताते हैं कि उन्हें पदभार संभालने के बाद से ये समस्या आने लगी कि बहुत सारे ठेकेदारों ने दुकानों की बोली बढ़ाने से मना कर दिया। प्रवीर कुमार बताते हैं, “उन्होंने (ठेकेदारों ने) करीब-करीब खुली धमकी दी कि जो पिछले साल की बोली है, वो उसका 70-80 प्रतिशत ही देंगे। जो करना है करिए, इससे ज़्यादा नहीं होगा। अरअसल उन्हें पता था कि उनके सामने कोई खड़े होने वाला नहीं है।. नीलामी में सबने अपना अपना इलाका बांट रखा था।”
शराब ठेकेदारों के इस रुख से राजस्व को बढ़ाने को लेकर समस्या खड़ी हो गई। नीलामी से इकट्ठा राजस्व राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण था। फैसला हुआ कि इस मोनॉपली या एकाधिकार को तोड़ा जाए ताकि बाज़ार में प्रतिस्पर्धा बढ़े और नए लोग बिज़नेस में आ पाएं। यानि खेल के नियमों को ही बदल दिया जाए। पूर्व अधिकारी बताते हैं कि ये सरकार का पूर्ण समर्थन ही था कि वो एकाधिकार और शराब व्यापारियों की मनमानी खत्म करने के लिए साल 2001-02 में नई आबकारी नीति ला पाए।
उत्तर प्रदेश में सेक्रेटरी एक्साइज रहे और 2001 की आबकारी नीति पर पीएचडी कर चुके डॉक्टर एसपी गौड़ के मुताबिक इस नीति में मानवीय लॉटरी से दुकानों के आवंटन का प्रावधान था और दुकान के लिए कोई भी व्यक्ति जिसके पास अपनी या किराए पर प्रॉपर्टी हो, वो आवेदन कर सकता था। इसके अलावा रिटेल दुकानदार कहीं से भी शराब खरीद सकते थे। इस नीति के अंतर्गत हर बॉटल पर होलोग्राम लगाया गया था ताकि उसकी बिक्री राज्य के भीतर हो।
साल 1999 से 2002 तक प्रदेश के एक्साइज कमिश्नर प्रवीर कुमार और उनकी टीम की इस नीति के कार्यान्वनय में महत्वपूर्ण भूमिका थी।
प्रवीर कुमार के मुताबिक इस नीति में सबसे बड़ा बदलाव ये था कि नीलामी से मिलने वाली राशि की जगह मिलने वाली आमदनी को दो भाग में विभाजित कर दिया – लाइसेंस फीस और ड्यूटी। एक दुकान की लाइसेंस फीस वहां होने वाली बिक्री के आधार पर निर्धारित की गई, जबकि फैसला हुआ कि शराब पर लगने वाला कर उसके डिस्टिलरी से बाहर निकलने से पहले ही सरकार इकट्ठा कर लेगी।
नतीजा ये हुआ कि पुराने बड़े नाम धीरे धीरे बिज़नेस से बाहर हो गए। मोनोपली राज पर रोक लगी और नए लोग जैसे पूर्व बैंक अधिकारी, रिटायर्ड लोग, एमबीए ग्रैजुएट बाज़ार में उतरे जो पहले इसकी धूमिल छवि की वजह से इससे आमतौर पर दूर रहते थे।
जवाहर जायसवाल का कहना है कि मोनोपली राज अच्छा था क्योंकि इससे अवैध शराब व्यापार पर उनका कंट्रोल रहता था। बिज़नेस से बाहर होने की वजह पर जवाहर जायसवाल कहते हैं, “इस बिज़नेस में (हमारे) बच्चे नहीं आना चाहते थे। तो मैंने सोचा कि इसे छोड़ देना ही ठीक है। इतिहास में है कि कोई एक आता है तो दूसरा चला जाता है. जो चला जाता है उसको लोग भूल जाते हैं. जो आगे आता है, उसे ही लोग याद करते हैं।” लेकिन अधिकारियों के लिए नई नीति लेकर आना सरकार के लिए आसान नहीं था। उस वक्त के एक्साइज कमिश्नर प्रवीर कुमार ने बताया, “मुझे धमकियां मिलीं। मेरे परिवार को धमकियां मिलीं। रात में दो-दो बजे लोगों के फ़ोन आते थे। ये कर देंगे, वो कर देंगे। मै सीएम से मिला। उन्होंने कहा कि आप गार्ड ले लीजिए। वह कहते हैं, “मैं अपने यात्रा के कार्यक्रम के बारे में किसी को नहीं बताता था। कभी रोड से आ गए, तो कभी ट्रेन से आ गए। अदालत में इसे लेकर काफ़ी प्रतिरोध हुआ। वहां हमें सख्त लड़ाई लड़नी पड़ी। उनके पास अथाह पैसा था। वो सबसे अच्छे वकील को ला सकते थे.”
पोंटी चड्ढा का ‘उदय’
मायावती और अखिलेश यादव सरकारों से नज़दीकियों के आरोपों के बीच पोंटी चड्ढा का साम्राज्य फैलता गया। शराब व्यापारी भानु जायसवाल के मुताबिक उत्तर प्रदेश में बड़े प्लेयर के रूप में पोंटी चड्ढा का ‘उदय’ साल 2000 में हुआ और साल 2012 में उनकी हत्या तक प्रदेश के शराब व्यापार पर उनका वर्चस्व रहा। उस वक्त के एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के मुताबिक पोंटी चड्ढा के उदय के बाद पहले की मोनॉपली सुपर मोनॉपली में बदल गई और 2001 की आबकारी नीति की धज्जियां उड़ा दी गईं। राज्य में शराब की सारी सप्लाई अब उनके हाथ में थी। भानु जायसवाल कहते हैं, “चड्ढा हर चीज़ को मैनेज कर लेते थे। हर क्लास के साथ हाथ मिलाकर बिज़नेस को डाइवर्ट कर लेते थे। हर ज़िले में उनका पार्टनर होता था जो स्थानीय स्तर पर बातों को मैनेज करता था। वह (पोंटी) प्राफ़िट मैनेज करते थे।”
भानु जायसवाल कहते हैं, “बसपा सरकार बनी तो लाइसेंस सिस्टम बदल गया। सिंगल लाइसेंस हो गया। यह सपा के दौर में भी बना रहा। पूरे उत्तर प्रदेश के होलसेल का लाइसेंस एक व्यक्ति को दे दिया गया कि आप लाइसेंस लो और चलाओ। उसका बहुत बड़ा नुकसान हुआ कि छोटी-छोटी इंडस्ट्री बंद हो गईं। क्योंकि वो (पोंटी) जितना मार्जिन मांगते थे, कंपनियां दे नहीं पाती थीं। बड़ी कपनियां तो मैनेज कर लेती थीं लेकिन छोटी कंपनियां, डिस्टलरियां नही कर पाईं। जो स्थानीय ब्रांड्स थे वो बंद हो गए। बहुत से ब्रांड बाज़ार से गायब हो गए। कंपनियों से कहा जाता था कि अगर आप हमें ये मार्जिन देंगे तो आपका ब्रांड हम बेचेंगे नहीं तो नहीं बेचेंगे।”
वाराणसी के प्रभात जायसवाल जब शराब के रीटेल बिज़नेस में आए तब प्रदेश में पोंटी चड्ढा का सिक्का चलता था। वो कहते हैं, “हर ज़िले में पोंटी के गोडाउन थे। वो जो ब्रांड उपलब्ध करवाते थे, वही बेचना पड़ता था। अगर उनकी इच्छा है कि ये ब्रांड राज्य में नहीं आएगा, तो हमको नहीं मिलता था और ना ही हम अपनी दुकान में रख सकते थे।”
आज का दौर
जानकारों के मुताबिक चड्ढा की हत्या को 10 साल हो चुके हैं लेकिन राज्य के शराब व्यापार पर चड्ढा परिवार का आज भी ख़ासा असर है। लेकिन कारोबार काफीकुछ बदल चुका है। उत्तर प्रदेश में आज शराब व्यापार के लिए लॉटरी प्रक्रिया पूरी तरह ऑनलाइन है, जिससे सिस्टम में पारदर्शिता आई है, मोनॉपली काफी कम हुई और कई नए लोगों को इस क्षेत्र में आने का मौका मिला है। जवाहर जयसवाल कहते हैं, “ऑन लाइन सिस्टम अच्छा है। इसमें कोई हेराफ़ेरी नहीं हो सकती जो पहले होती थी।” शराब व्यापारी प्रभात कुमार जयसवाल के मुताबिक “आज कोई भी इस बिज़नेस में आ सकता है. (बिज़नेस में) शांति और सुकून है। हालांकि कुछ शराब व्यापारियों का कहना है कि बिज़नेस में मुनाफ़ा कम हुआ है, और छोटे व्यापारियों के लिए आर्थिक दबाव बढ़ा है।
लखनऊ में लिकर सेलर्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन के देवेश जायसवाल कहते हैं, “रेवेन्यू प्रॉफ़िट काफ़ी कम हो गया है। लाइसेंस फीस बहुत ज़्यादा बढ़ गई है। हमें सरकार को एक न्यूनतम आमदनी देनी होती है। चाहे हमारी आमदनी हो या न हो। हर साल लोग बड़ी संख्या में दुकानें सरेंडर कर रहे हैं। देवेश अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं, “मेरे पास इतने पैसे नहीं बचे कि मैं इस बिज़नेस को लंबे समय तक चला पाऊं।”
उत्तर प्रदेश के इक्साइज कमिश्नर सी सेंथिल पांडियन इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि लोग दुकानें सरेंडर कर रहे हैं। उनका कहना है कि शराब बेचने वाली दुकानें तो बढ़ी हैं, न कि घटी हैं। शराब व्यापार से पिछले साल उत्तर प्रदेश को 36 हज़ार करोड़ रुपए की आमदनी हुई, इस साल सरकार का लक्ष्य 49 हज़ार करोड़ को पार करने का है। नई तकनीकों का इस्तेमाल कर प्रशासन शराब की चोरी रोकने की कोशिशें कर रहा है। आज पूरे राज्य में आप दो से ज़्यादा दुकानें नहीं ले सकते। किसी एक ज़िले में शराब के होलसेल में एकाधिकार न हो इसलिए हर ज़िले में एक से ज़्यादा होलसेलर हैं।
इक्साइज कमिश्नर सी. सेंथिल पांडियन कहते हैं, “होलसेल में भेजी गई और रिटेल में बेचे जाने वाली सभी शराब के आने जाने की गतिविधि को ट्रैक किया जाता है। पासवर्ड से खुलने वाला डिजिलॉक अपने गंतव्य पर खुलता है, उससे पहले नहीं। ताकि रास्ते में लीकेज या चोरी न हो। हम शुरू से यानी कच्चे माल से आख़िर तक यानी ग्राहक को सामान मिलने तक पूरी ट्रैकिंग सिस्टम को लागू करने की प्रक्रिया में है।”
एक्साइज से कमाया गया कर उत्तर प्रदेश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। राज्य की करीब 29 हज़ार दुकानों में शराब की बढ़ती खपत से कई लोग खुश हैं। उनका मानना है दुनिया के मुकाबले भारत शराब की प्रति व्यक्ति खपत में अभी भी पीछे है, लेकिन एक दूसरा वर्ग है जो युवाओं में शराब के बढ़ते आकर्षण और सामाजिक प्रभाव पर फिक्रमंद है। लेकिन हकीकत यह भी है कि जायसवाल-शिवहरे समाज के तमाम लोग जिनके यहां शराब का कारोबार दशकों से होता आ रहा है, अब इस कारोबार से निकलने की जुगत में हैं। कई लोगों ने अपने धंधे बदल भी लिए हैं। उनका कहना है कि शराब के काम में अब सामान्य प्रॉफिट रह गया है, कोईव्यक्ति महज एक दुकान से अपने परिवार का खर्च चलाने की स्थिति में नहीं रहा।
(आलेख के महत्वपूर्ण इनपुट बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के लिए गए हैं।)
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