अंतरराष्ट्रीय ख्याति के प्राचीन इतिहासकार, विधिवेत्ता, पुरातत्वविज्ञ, प्राचीन लिपि मर्मज्ञ, लुप्त इतिहास के अद्भुत विद्वान, मुद्राशास्त्री, प्राच्यतत्वविद, सूक्ष्म अन्वेषक तथा भारतीय सभ्यता-संस्कृति अन्यतम पुजारी एवं उन्नायक तथा ग्रीक, लेटिन, जर्मन, फ्रेंच, इंग्लिश, चीनी, तमिल, तेलुगु, हिन्दी, संस्कृत आदि 35 देशी-विदेशी भाषाओं के जानकार पंडित विद्यामहोदधि डा. काशीप्रसाद जायसवाल, एमए, डीलिट्, बार-एट-लॉ का जन्म 27 नवंबर, 1881 को पश्चिम बंगाल स्थित मानभूमि जिला के अंतर्गत झालदा नामक स्थान पर हुआ था। उन्होंने मिर्जापुर में संत हंडिया बाबा से संस्कृत की शिक्षा ली। मिर्जापुर के लंदन मिशन हाईस्कूल से 1897 में मैट्रिक करने के बाद बनारस के कुइंस कालेज से स्नातक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त करने के पश्चात रामअवतार पांडेय नामक एक ब्राह्मण रसोइये के साथ उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए। वहां उन्होनें ऑक्सफोर्ड से 1909 में प्राचीन इतिहास में एमए किया और बाद में बेरिस्ट्री भी पास की। वहां कुछ दिनों के लिए वह जेसास कॉलेज में चीनी भाषा के लिए लेक्चरर नियुक्त हुए।
ऑक्सफोर्ड में रहते समय इनकी मैत्री भारत के महान क्रांतिकारियों से हो गई। जिसमें वीर दामोदर विनायक सावरकर, लाला हरदयाल, मैडम कामा, एसआर राणा, श्यामजी कृष्ण वर्मा, राजा महेंद्र प्रताप, श्री अय्यर आदि प्रमुख थे। इन्होंने वहां ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ बनाया औऱ लंदन के ‘इंडिया हाउस’ में आपस में मिलने लगे। इनकी क्रांतिकारी प्रवृत्तियों की जानकारी इंग्लैंड के गुप्तचरों को हो गई और जब 1910 में वे वापस भारत आने लगे तो वहां की सरकार ने हिंदुस्तान के प्रशासन को गुप्त संदेश भेजा कि डा. जायसवाल को मुंबई पहुंचते ही गिरफ्तार कर लिया जाए, पर यह भी कम न थे। सीधे भारत लौटने के बजाय वह यूरोप का भ्रमण करते हुए तुर्की से होकर भारत लौट आए।
इंग्लैंड से आने के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय के उप-कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने इन्हें प्राचीन इतिहास विभाग का अध्यापन का कार्य सौंप दिया। एक क्रांतिकारी प्रवृत्ति का व्यक्ति इतिहास जैसा विषय विश्वविद्यालय में पढ़ाए, सरकार इसे कैसे बर्दाश्त कर सकती थी। तत्काल बंगाल के गवर्नर ने इस नियुक्ति को रद करवा दिया। उनके साथ ही उनके दो मित्र डा. ए. सुहरावर्दी तथा 1906 की ऐतिहासिक बारिसाल कांफ्रेंस (इसने बंग-भंग के खिलाफ आंदोलन का शुभारंभ किया था) के सभापति अब्दुल रसूल को भी इस्तीफा देना पड़ा। 1911 में इन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करना शुरू कर दिया। इसी दौरान सर आशुतोष मुखर्जी ने काशीप्रसादजी ‘मनु एंड याज्ञवल्वय’ पर टैगोर लेक्चर ऑफ लॉ का प्रसिद्ध व्याख्यान करवाया। इसके बाद डा. जायसवाल हिंदू लॉ के अथॉरिटी माने जाने लगे। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने इन्हें 1917 में डाक्टर ऑफ लॉ की उपाधि से सम्मानित किया। 1914 में बिहार में हाईकोर्ट की स्थापना के बाद इनके दो बैरिस्टर मित्र सर अली इमाम और सर हसन इमाम के अनुरोध पर उन्होंने पटना हाईकोर्ट में वकालत करना शुरू कर दिया। भारत विद्या के प्रति आंतरिक रुझान के कारण उनका मन और प्राण हमेशा भारतीय इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, धर्म आदि की खोज में ही विचरण करता रहा।
‘मौर्यकालीन सिक्कों’ पर उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण खोजों पर व्याख्यान देने के लिए 1931 में ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ लंदन से निमंत्रण पाने वाले एकमात्र भारतीय थे जिनके बाद उन्हें दूसरा ‘सर अलेक्जर कनिंहम’ कहा गया। बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय की उपस्थिति में उन्हें डाक्टर ऑफ फिलॉसिफी की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया।
उनके द्वारा रचित पुस्तकें भारत तथा विदेशों के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। ‘हिंदू पॉलिटी’ (बंगलौर, 1924), ‘मनु एंड याज्ञवल्वय’ (कलकत्ता, 1920), ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया 150-350’ (लाहौर, 1933), ‘एन इम्पीरियल हिस्ट्री ऑफ इंडिया ई.पू.700-770 ईस्वीं तक’ (लाहौर, 1934), ‘चंद्रशेखर का राजनीति रत्नाकर’, ‘ए क्रोनोलॉजी ऑफ नेपाल’ आदि उनकी प्रधान पुस्तकें थीं।
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी इतिहास संबंधी नई-नई खोजों ने पूरी दुनियाभर में हलचल मचा दी। उनके ग्रंथ ‘हिंदू पॉलिटी’ (हिंदू राजतंत्र) ने अंग्रेज इतिहासकारों के इस बात का खंडन किया कि भारतीयों को राज्य चलाने की पद्यति नहीं मालूम है। बड़े-बड़े विद्वानों ने इनकी खोजों के आधार पर फिर से भारत का इतिहास लिखना शुरू किया तथा बहुत से तथ्यों में संशोधन किया। प्राचीन सिक्कों, गुफाओं, मंदिरों और अन्य स्थानों की खोज करते हुए वे भारत के महान अतीत को प्रकाश में ला रहे थे। पटना विश्वविद्यालय ने भी उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ लिटरेचर’ की उपाधि से सम्मानित किया।
उन्होंने ‘डार्कनेस ऑफ इंडिया’ लिखकर गुप्तों के काल पर पहले पहल प्रकाश डाला और साबित किया कि गुप्तकाल ही संसार में ‘स्वर्ण युग’ रहा। उन्होंने यह भी साबित किया कि चीन और जापान का ‘आध्यात्मिक गुरु’ भारत ही है। उन्होंने ‘बिहार एंड उड़ीसा सोसायटी’ की स्थापना 1915 में की, जो बाद में ‘डॉक्टर काशीप्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के नाम से जाना जाने लगा। उन्होंने ‘पटना म्यूजियम’ का अपनी देखरेख में निर्माण करवाया था तथा 1926 से 1936 तक इसके अध्यक्ष भी रहे। इन्होंने ही डा. राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष और पंडित जयचंद्र विद्यालंकार को सचिव बनाते हुए ‘भारतीय इतिहास परिषद’ की स्थापना कराई।
स्मृतियाः-‘
- ‘डा. काशीप्रसाद जायसवाल की मृत्यु से भारत के बाग का एक सुंदर गुलाब सूख गया।’- महात्मा गांधी
- ‘डा. जायसवाल मेरी कला के सच्चे एवं सटीक पारखी हैं।’- विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर
- जायसवालजी आपने अपनी साधना से भारत का मुख उज्ज्वल किया है।’- सर आशुतोष मुखर्जी
- ‘अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पंडित अब हमारे बीच नहीं रहे। गुलाम भारत में जन्म लेकर श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने जितनी खोजें कीं, अगर भारत स्वतंत्र होता तो उन्हें सर्वोच्च सम्मान से विभूषित किया जाता।’- डा. राजेंद्र प्रसाद
‘जायसवालजी का प्रेम मेरे जीवन में सूर्य बनकर उदित हुआ और मेरे भीतर जो कमल बंद था, उसके दल स्वयंमेव उन्मुक्त होने लगे।’- रामधारी सिंह दिनकर- ‘मुझे हुमायूं की जान बचाने वाले निजामुद्दीन भिश्ती की तरह अगर चार दिन की हुकूमत मिल जाए तो मैं नगर-नगर गांव-गांव तथा मंदिरों में स्व. डा. काशीप्रसाद जायसवालजी की मूर्तियां लगवाने का हुक्म दे दूं। इस महापुरुष ने दुनिया को और भारतीयों को भी, भारतीय इतिहास को देखने समझने की सही दृष्टि प्रदान की। उनका यह उपकार भुलाया नहीं जा सकता।’- अमृतलाल नागर (उपन्यासकार)
- ‘डा. जायसवाल एक युगांतकारी महापुरुष थे।’- डा. निहाल रंजन रे
- मैं श्रद्धेय जायसवालजी के बारे में कह सकता हूं कि इतना बड़ा वैज्ञानिक इतिहासकार भारत में नहीं हुआ।– राहुल सांकृत्यायन
‘डा. काशीप्रसाद जायसवाल भारत के प्राचीन इतिहास औऱ पुरातत्व के धुरंधर विद्वान थे।’- पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी
1933 में बड़ौदा में हुई ‘ऑल इंडिया ओरियंटल कांफ्रेंस’ के अध्यक्ष बने तथा ‘भारतीय मुद्राशास्त्री सम्मेलन’ के दो बार अध्यक्ष बने (1935, 1937)। ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’, इंदौर, 1935 के अध्यक्ष महात्मा गांधी थे, जिसमें डाक्टर काशीप्रसाद जायसवाल ‘इतिहास सम्मेलन’ के अध्यक्ष रहे और ‘हिन्दू राज्य शासन का उपक्रम’ शीर्षक व्याख्यान पाठ किया। 1926-27 में भागलपुर में हुए ’हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के वे अध्यक्ष रहे। पटना से प्रकाशित ’पाटलिपुत्र’ का संपादक रहते हुए तथा भारतीय ज्ञान के स्रोतरूपी ‘सरस्वती’ में कानून, अर्थशास्त्र, भारतीय पुरातत्व, भूगोल, इतिहास, साहित्य, राजनीति आदि पर सैकड़ों खोजपूर्ण लेख प्रकाशित किए। उन्होंने ‘कलवार गेजेट’ नामक पत्रिका प्रकाशित कराकर जाति उत्थान के बारे में बहुत खोजपूर्ण लेख प्रकाशित किए। बैरिस्टर जायसवाल ने ‘प्रिवी काउंसिल’ में हिंदुस्तान के बड़े-बड़े मुकद्मे (बिना किसी अंग्रेज वकील की सहायता से) जीते जिसके लिए उन्होंने बहुत बार इंग्लैंड की यात्रा की।
डा. काशीप्रसाद जायसवाल सन 1930 में गायकवाड़ स्वर्ण जयंती व्याख्याता के रूप में सम्मानित किए गए थे। उनसे पहले केवल विश्वकवि रवींद्र नाथ ठाकुर को ही यह गौरव प्राप्त था और विज्ञानाचार्य डा. सीवी रमन तीसरे महापुरुष थे जिन्होंने यह सम्मान प्राप्त किया। इन दोनों (टैगोर और रमन) को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
मुंगेर के राजा देवकी नंदन सिंह की मृत्यु के बाद चौथी ‘अखिल भारतीय चंद्रवंशीय हैहय क्षत्रिय जायसवाल महासभा’ के अध्यक्ष बने औऱ आठवीं महासभा की अध्यक्षा इनकी दूसरी पुत्री बैरिस्टर धर्मशीला लाल जायसवाल बनीं। इनके बड़े बेटे और दूसरी बेटी बैरिस्टर थे। दूसरी बेटी बिहार राज्य की पहली महिला बैरिस्टर थीं। बड़ी बेटी संस्कृतज्ञ ‘काव्यतीर्थ’ बनीं। दूसरे बेटे बिहार राज्य के कृषि विभाग के अतिरिक्त निदेशक, चौथे बेटे रांची मेडिकल कालेज के सर्जन और छोटी बेटी लंदन में डॉक्टर थीं।
देश के गौरव के लिए पूर्ण रूप से समर्पित इस महापुरुष का जीवनद्वीप 4 अगस्त, 1937 को बुझ गया। उनके निधन से सारे देश और विश्वभर में शोक की लहर दौड़ गई थी।
(शिवहरेवाणी के लिए यह आलेख श्री राम मनोहर जायसवालजी ने लिखा है। असम के जोराहट के निवासी श्री राम मनोहर जायसवाल राजस्व विभाग से रिटायर्ड हैं। वह अखिल असम कलवार समाज के केंद्रीय महासचिव हैं।)
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