शिवहरे वाणी नेटवर्क
आगरा।
उपवन में नृत्य करते भगवान राधा-कृष्ण, सिंह पर सवार दुर्गा मां, जीवंत मुद्राओं में कई अन्य देवी-देवता ..। यह वर्णन किसी सीनरी, पेंटिंग, चित्र, पाषाण प्रतिमा या पत्थर पर उकेरी गई कलात्मक नक्काशी का नहीं है, बल्कि आगरा में शिवहरे समाज की धरोहर मंदिर श्री दाऊजी महाराज के हॉल की बालकनी में लगी उस लोहे की जाली का है जो अब मुख्य मंदिर के वैभव में चार चांद लगा रही है।
आगरा में शिवहरे समाज के गौरवशाली इतिहास को समेटे मंदिर श्री दाऊजी महाराज में चल रहा पुनर्निर्माण, पुनरुद्धार और संरक्षण कार्य अपने अंतिम चरण में हैं। समाज की सवा सौ साल से अधिक पुरानी इस धरोहर के पुनरुद्धार कार्य में सबसे बड़ी चुनौती थी उस शानदार शिल्प और नक्काशी को संरक्षित करना जिसके लिए यह मंदिर विख्यात है। पूरी तस्वीर सामने आने में अभी वक्त लगेगा, लेकिन झलक शानदार है, उत्साहित करने वाली है।
मंदिर परिसर में बना वह हॉल अब पुराना स्वरूप खो चुका है, जहां अक्सर समाज की बैठकें और अन्य सामान्य धार्मिक एवं सामाजिक व सांस्कृतिक आयोजन होते थे। इसी हॉल में मंदिर के मुख्य पुजारी महेश पंडितजी का पलंग भी पड़ा होता था और उनके कमरे का दरवाजा भी हॉल में खुलता था। इसी हॉल में चारों ओर लाल पत्थरों पर टिकी एक छोटी सी बालकनी थी जिसकी मुंडेर में लगी लोहे की कलात्मक जाली इसे वैभव प्रदान करती थी।
मंदिर की पुनरुद्धार योजना में यह स्पष्ट था कि मुख्य मंदिर से कोई छे़ड़छाड़ नहीं की जाएगी और कार्य मुख्य मंदिर से लगे हॉल के साथ शुरू होगा और पीछे के आंगन व धर्मशाला के हिस्से का ही कायाकल्प किया जाएगा। हॉल तोड़ने को लेकर जो सबसे बड़ी आपत्ति या आशंका थी, वह यह कि हॉल में बालकनी की मुंडेर में लगी जाली का क्या होगा जो मंदिर के वैभव का प्रमुख हिस्सा है।
यह जाली पूरी तरह ढलाई करके बनाई गई है, इसमें इस्तेमाल लोहा इतनी शानदार शानदार क्वालिटी का है कि आज लगभग सौ साल बाद भी इसमे किसी प्रकार की जंग नहीं लगी है। इस मुंडेर को कलात्मक नक्काशी से भरपूर पत्थरों पर टिकाया गया था। कुल मिलकर, इसके निर्माण में बुजुर्गों की सोच, दूरदृष्टि और समर्पण की भावना को देखकर उन्हें सैल्यूट करने को दिल करता है। इसीलिए सवाल लाजिमी था कि यह जाली यहां से हटेगी तो लगेगी कहां।
मंदिर प्रबंध समिति के अध्यक्ष श्री भगवान स्वरूप शिवहरे ने बताया कि पहले योजना थी कि नए निर्माण के तहत बड़े हॉल में ही इसका इस्तेमाल किया जाएगा। लेकिन बाद मे इस योजना मे परिवर्तन किया गया और इस जालीदार मुंडेर को मुख्य मंदिर में बालकनी पर स्थापित किया गया। उन्हें कलात्मक पत्थरों पर यह जाली अब मुख्य मंदिर के वैभव में चार चांद लगा रही है।
मंदिर अध्यक्ष के मुताबिक, जाली को इस जगह लगाने का प्रस्ताव सबसे पहले मंदिर के वरिष्ठ पदाधिकारियों विजनेश शिवहरे एवं आशीष शिवहरे (लाला भाई) ने दिया था, जिसे प्रबंध समिति की बैठक में सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। चूंकि भक्तगणों का मंदिर में नियमित आगमन होता है, इस लिहाज से यह स्थान पहले से अधिक उपयोगी भी है। अब मुख्य मंदिर में लगी इस जाली को रंगीन स्वरूप देने का प्रयास किया गया है। इसके लिए इसके कुछ हिस्से पर बहुत आकर्षक पेंटिंग की गई है। अब लोगों की राय ली जा रही है, उसी के आधार पर जाली की कलर प्लानिंग की जाएगी।
खैर, मंदिर का पुराना हॉल, उसमें बने कमरे और अलमारियां..सब हट गई हैं। हॉल की जगह के साथ बीच के आंगन और पुरानी धर्मशाला की जगह को मिलाकर एक बड़ा हॉल बन गया है जिसमे एक स्टेज बनाया गया है, ऊपर की मंजिल पर जाने की सीढ़ियां वहीं से निकलती हैं। नई धर्मशाला में जाने का रास्ता भी यहीं से है। ऊपर की मंजिल में भी काफी बड़ा स्पेस है। नई संरचना अचंभित कर देने वाली है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि उपयोगिता ही कला की जीवन अवधि को निर्धारित करती है। या यूं कहें कि किसी भी कलात्मक कृति या निर्माण की उपयोगिता स्वयं ही लोगों को अपने संरक्षण के लिए प्रेरित करती है। इसीलिए परिवर्तन का स्वागत किया जाना चाहिए, बदलाव ही सबसे पुरानी परंपरा है। बदलाव की प्रक्रिया मे उपयोगिता का सम्मान और संरक्षण स्वतः होता रहेगा। उम्मीद है कि मंदिर श्री दाऊजी महाराज का नया स्वरूप भी इस सच की बयानी होगा।
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