नागपुर के अतुल चौकसे ने सहारा मैराथन पूरी कर मोरक्को में फहराया तिरंगा, शिवहरे वाणी से साझा किए अनुभव
शिवहरे वाणी नेटवर्क
नागपुर।
45 डिग्री सेंटीग्रेड पर तपता हुए छह दिन, और 1-2 डिग्री की जमा देने वाली छह रातें…। पूरे रास्ते जहरीले सांप और बिच्छू। आंखों को मींच देने वाले रेतीले तूफान…। ऐसी विषम परिस्थितियों में महज दो दिन का खाना लेकर बिना नहाए-धाये और कपड़े बदले छह दिन दौड़ते हुए 251 किलोमीटर का अंजान और निर्जन रास्ता तय करना किसी के लिए दुःस्वप्न हो सकता है। लेकिन, नागपुर के अतुल चौकसे ने यह फासला न केवल बखूबी तय किया, बल्कि दुनियाभर से पहुंचे 1100 धावकों में भारत की धाक जमाने में कामयाबी भी हासिल की। बकौल अतुल. दुनिया की सबसे मुश्किल दौड़ 'सहारा मैराथन' पूरी करने की प्रेरणा उन्हें अपने महान तिरंगे से मिली, जिसे उन्हें पूरे सफर में अपने साथ रखा और, जिसकी शान को बनाए रखने को उन्होंने मिशन बना लिया।
सच भी है, कि इतनी मुश्किल परिस्थितियों में ऐसा मुश्किल रास्ता तय करना किसी मिशन के तहत ही संभव हो सकता है। 'मैराथन ऑफ सैंड' या 'सहारा मैराथन' में सफल होकर लौटे अतुल चौकसे फिलहाल अपने सम्मान में होने वाले समारोहों में व्यस्त हैं। इस बीच उन्होंने शिवहरे वाणी से बात कर अपने अनुभवों को शेयर किया। अतुल चौकसे बताते हैं कि यह मेरे जीवन की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है जिसकी यादें मेरे जीवन के सबसे कठिन मगर सबसे प्रेरणादायी पलों के रूप में मेरे जेहन में अमिट रहेगी। बकौल अतुल, मोरक्को के दुर्गम रेतीले इलाके में 251 किलोमीटर की दूरी मैंने छह दिनों में 45 घंटे दौड़ते हुए तय की। तमाम बाधाओं को पार करते हुए जब मंजिल पर पहुंचा तो एक बेहद खुशनुमा और सुखद अनुभव हुआ। आज मैं खुद पर गर्व कर सकता हूं कि मैंने तिरंगे की शान को बनाए रखा।
30 वर्षीय अतुल ने बताया कि मैराथन के दौरान मुझे 4 दिन भूखा रहना पड़ा। जो खाना मैं साथ ले गया था वह शुरू के दो दिनों में ही खत्म हो गया था। इसके बाद मैंने गर्म पानी में एक प्रकार के पाउडर को मिलाकर पीना शुरू किया और इस तरह रेस भी सफलता पूर्वक पूरी कर ली। इस स्पर्धा में 50 देशों से 1100 धावक आए थे जिनमें 250 लोगों ने रास्ते में ही क्विट कर लिया। यह दौड़ छह स्टेजेज में बंटी थी। सभी धावकों को उनकी हिफाजत और खाने का सामान एक बैग में दिया गया था जिसे उन्हें खुद ही कैरी करना था। उसमें एक काले रंग का शेड भी था। धावक को हर स्टेज के बाद एक चेक प्वाइंट पर टैंट लगाकर सोना था। एक स्टेज 90 किलोमीटर की थी जिसमें पूरी रात और दिन दौड़ना था। स्पर्धा कितनी मुश्किल रही होगी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 80 प्रतिशत धावकों के पैर बुरी तरह जख्मी हो चुके थे, कुछ के पैर जल गए थे तो कुछ के पैरों में बुरी तरह छाले हो गए थे, कई लोगों को गंभीर चोटें भी आईं।
अतुल ने बताया कि इस दौड़ में उनका सामना कई बार रेतीले तूफानों से हुआ। इसकी वजह से उन्हें पूरा मुंह और कान ढककर दौड़ना पड़ता था। 8 अप्रैल से 14 अप्रैल तक चली इस मैराथन का 70 देशों में लाइव प्रसारण किया गया और दुनियाभर से आए 200 से अधिक पत्रकारों ने इसे कवर किया था। मैराथन का समापन मोरक्को के शहर अवरगजाटे में हुआ जिसे गेट ऑफ सहारा के नाम से भी जाना जाता है। यहां सभी धावकों को दो दिन तक होटल में ठहराया गया और थकान से रिकवरी के पूरे इंतजाम किए गए। यहीं पर अतुल ने सात दिन बाद स्नान किया और कपड़े कपड़े।
अतुल ने बताया कि उन्हें मैप दिया गया था जिसके सहारे उन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचना था। मजे की बात यह है कि इस पूरी दौड़ में वह लोकल लोगों की कोई मदद नहीं ले सके, क्योंकि मोरक्कों में इंग्लिश बिल्कुल नहीं बोली जाती। वहां के लोग फ्रेंच और अरेबिक भाषा बोलते हैं जो उन्हें नहीं आती। लेकिन शायद इन्हीं वजहों से इसे सबसे मुश्किल दौड़ कहा जाता है। दौड़ के बाद हुए अवार्ड समारोह में अतुल को मैडल व सर्टिफिकेट प्रदान किया गया।
अतुल चौकसे ने इस गौरवपूर्ण स्पर्धा में उनकी सहायता करने वाले नागपुर के अस्पतालों, कंपनियों और विशेष रूप से कलचुरी समाज की उन संस्थाओं व महानुभावों का आभार व्यक्त किया है जिन्होंने उन्हें आर्थिक मदद मुहैया कराई। अतुल चौकसे का लक्ष्य दुनिया के ऐसी मुश्किल चुनौतियां का सामना करने वाले प्रतिभागियों को तैयार करना है। वह नागपुर के लोगों को फिटनेस के लिए ट्रेनिंग भी प्रोवाइड करा रहे हैं। इसके पहले कच्छ में 161 किलोमीटर की रन द रण में भाग लिया था, जिसके बाद अतुल ने सहारा मैराथन में दौड़ने का निश्चय कर लिया था।
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