August 5, 2025
शिवहरे वाणी, D-30, न्यू आगरा, आगरा-282005 [भारत]
धरोहर

मैं हूं मंदिर श्री दाऊजी महाराज (एपीसोड 6)-एक थे लाला रघुनाथ प्रसाद जी

सोम साहू
इतिहास लेखन की पद्यति में काफी बदलाव आया है। अब इतिहास सिर्फ तारीखों और घटनाओं का विवरण भर नहीं है। इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है एक दौर में समाज का इतिहास, आम आदमी का इतिहास। आज जब मैं (मंदिर श्री दाऊजी महाराज) अपनी आत्मकथा के बहाने अपनी बिखरी और छितराई हुई स्मृतियों को आपके सामने रख रहा हूं, तो मेरा असल उद्देश्य उन घटनाओं, व्यक्तियों और पहलुओं का जिक्र करना है जो आगरा में शिवहरे समाज की विकास यात्रा में कहीं न कहीं टर्निंग प्वाइंट साबित हुए हैं।
समाज में तीन तरह के लोग होते हैं। एक वे जो समाज के उत्थान के लिए चिंता जाहिर करते हैं लेकिन इसके लिए कुछ करते नहीं हैं। दूसरे वे, जो समाज के उत्थान के लिए करते तो हैं लेकिन चाहते हैं कि उस काम का श्रेय उन्हें मिले, उनका नाम हो। तीसरे वे होते हैं जो समाज के लिए बहुत कुछ कर गुजरते हैं, लेकिन बिना किसी शोहरत या लाभ की लालसा से। यहां तक कि समाज की भलाई करने के लिए बुराई मोल लेने से भी नहीं चूकते। ऐसे ही थे लाला रघुनाथ प्रसाद जी।
यह वो दौर था, जब आगरा में शिवहरे समाज की गिनती आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समाजों में हुआ करती थी। हालांकि इन स्थितियों में बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। नाई की मंडी के गुजराती पाड़ा में रहने वाले लाला रघुनाथ प्रसादजी उस दौर में एक बार कुछ ऐसा कर गुजरे, कि समाज के आइकन हो गए। तब शादियां में बारातें 3-4 दिनों तक लड़की वालों के यहां ठहरा करती थी। लड़की वालों को हर रोज बारातियों को दोनों टाइम की दावत देनी पड़ती थी, और हर दावत में मिठाइयां भी अलग-अग होती थीं। अशिक्षा के उस दौर में होता यह था क महिलाएं अपनी पत्तल में मिठाइयां ज्यादा रखवा लेती थीं, और फिर बची हुई मिठाई को अपने साथ लाए रुमाल में या किसी कपड़े में बांधकर ले जाती थीं। इससे कन्या पक्ष को कई बार काफी मुश्किल की स्थिति से गुजरना पड़ता था। कई बार तो मिठाइयां कम हो जाने पर बाजार से मंगवानी पड़ती थीं और शादी का खर्च बढ़ जाता था। 
शादियों में ऐसी स्थिति न आए और कन्या पक्ष को राहत मिले, इसके लिए चिंतित समाजसेवियों ने कई दफा मीटिंग बुलाई, चर्चा की लेकिन इस कुप्रथा को दूर करने की कोई युक्ति कारगर नहीं हो सकी। तब लाला रघुनाथ प्रसाद जी को एक उपाय सूझा। एक मीटिंग में उन्होंने अपनी योजना रखी। बेशक योजना अच्छी थी लेकिन सवाल यह था कि इसे एग्जीक्यूट कौन करे? बुराई मोल लेने की हिम्मत किसी में नहीं हुई। तब लाला रघुनाथ प्रसादजी ने ही इसकी जिम्मेदारी ली।
नाई की मंडी में एक विवाह था। लाला रघुनाथ प्रसादजी भी आमंत्रित थे। उन्होंने अपनी पत्नी को समझा बुझाकर भेजा। दावत में महिलाओं की पंगत लगी। उसमें लालाजी की श्रीमती जी भी बैठी थी। लालाजी परसाव की देखभाल के बहाने वहां आ गए। दावत खत्म हुई, सभी महिलाएं उठने लगीं। तभी लालाजी अपनी बुलंद आवाज में चिल्लाए-‘रुको!’महिलाएं जहां कि तहां खड़ी हो गईं। लालाजी अपनी पत्नी के पास आए और उनके हाथ में रखा रुमाल खींच लिया। रुमाल में कई मिठाइयां बंधी हुई थीं।
लाला रघुनाथ प्रसादजी ने सबको दिखाते हुए कहा,‘देखो भाइयों, ये जीमने आई हैं और मिठाइयां चुराकर ले जा रही हैं। कितनी बड़ी चोर है यह महिला।’इतना सुनना था, कि बाकी महिलाएं पानी-पानी हो गईं और उन्होंने अपने रुमाल या जो भी कपड़े जिनमें मिठाइयां बंधी थीं, चुपचाप वहां रख दिए और चली गईं। उसके बाद से दावतों में मिठाइयों की चोरी पर जैसे रोक ही लग गई। कन्या पक्ष को राहत मिली।
लाला रघुनाथ प्रसादजी ने जिस आसानी से और अपने पर बुराई मोल लेते हुए एक कुप्रथा को समाप्त किया, वह एक मिसाल है। आज के तथाकथित समाजसेवियों में शायद इतनी हिम्मत नहीं होगी कि खुद बुराई मोल लेकर परहित के काम करें। लेकिन, यही समर्पण की कसौटी होती है। सचमुच बहुत खरे व्यक्ति थे लाला रघुनाथ प्रसाद जी। मेरे लिए (मंदिर दाऊजी महाराज) भी वह हमेशा समर्पित रहे। मेरे विकास में उनका विशेष योगदान रहा। मुख्य परिसर में संगमरमर के खूबसूरत सेहन चबूतरे का निर्माण उन्होंने अपनी पुत्री उल्फत देवी की स्मृति में कराया था।
 

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