by Som Sahu December 19, 2017 घटनाक्रम, धरोहर 110
गतांक से आगे..
मैंने पिछले एपीसोड में बताया था कि आजादी के बाद लगभग हर समाज में सुधार की लहर चल रही थी, शिक्षा के प्रसार के प्रयास हो रहे थे। सुधारवादी गतिविधियों का नेतृत्व आदर्शवादी नवयुवकों के हाथ में था। शिवहरे नवयुवक मित्र मंडल ऐसे ही युवाओं का संगठन था, जो शिवहरे समाज में जागृति की अलख जला रहे थे। लेकिन मित्र मंडल का एक सपना साकार नहीं हो सका। वह था शिवहरे लड़के-लड़कियों के लिए स्कूल-कालेज की स्थापना करने का।
मित्र मंडल के इस सपने को पंख लगे थे 1954-55 में, और समाज के दो पढ़े-लिखे नवयुवकों को इस काम के लिए चुना। इनमें एक थे कामता प्रसाद साहू ‘उदित’ जो शिवहरे नवयुवक मंडल के सक्रिय सदस्य विशंभरनाथ शिवहरे के छोटे भाई थे। दूसरे थे प्रो. श्यामबाबू शिवहरे। दोनों नाई की मंडी में रहते थे, दोनों स्नातकोत्तर कर रहे थे और अभिन्न मित्र थे। मित्र मंडल ने इन दोनों युवकों को मेरे परिसर में बनी धर्मशाला में शिवहरे बालक-बालिकाओं के लिए कक्षा पांच तक का कोचिंग स्कूल चलाने की जिम्मेदारी दी। एक संचालन समिति बनाई गई जिसमें मित्र मंडल के सदस्यों के साथ ही समाज के अन्य वरिष्ठ लोग भी थे। समिति के समक्ष चुनौती थी कोचिंग स्कूल के लिए वांछित चंदा एकत्र करने की।
छात्र-छात्राएं स्वेच्छा से महीने-दोमहीने में अपने घरों से दो-चार आना देकर अपनी लगन प्रदर्शित करते थे। आलमगंज के श्री रमेशचंद्र जी और कुछ अन्य लोग थे जो इस कोचिंग केंद्र के लिए कुछ न कुछ चंदा एकत्र कर लिया करते थे। इस राशि से प्राइमरी बच्चों के लिए एक वयोवृद्ध अवकाशप्राप्त शिक्षक को बीस रुपये मासिक की तनख्वाह पर लगाया गया था। शेष राशि कक्षाओं के आसन, ब्लैक बोर्ड और चाक पर खर्च हो जाती थी। पचास रुपये के चंदे में बचने लायक कुछ नहीं रहता था।
कोचिंग स्कूल शुरू होने के कुछ महीनों बाद संचालन समिति की निगरानी बैठक बुलाई गई जिसमें दोनों युवकों से हिसाब मांगा गया। आना-पाई का हिसाब-किताब दे दिया गया, लेकिन इसी दौरान समिति के कुछ लोगों ने दोनों पर कर्तव्य में शिथिलता बरतने का आरोप भी लगा दिया। इस पर दोनों युवक बिगड़ गए और चंदा उगाही में शिथिलता बरतने का आरोप समिति के सदस्यों पर लगा दिया। काफी तर्क-वितर्क हुए, समिति सदस्यों ने कहा कि इस तर्क से आप अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते, तो युवकों ने दलील दी कि जवाबदेही नियोक्ता के प्रति होती है, और हम कोई वेतन या मानदेय नहीं लेते हैं।
इस पर स्व. जौहरीलालजी शिवहरे ने समिति को फटकार लगाई कि दो लड़के अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई से कीमती समय निकाल कर नई पीढ़ी को तैयार करने के काम में लगे हैं जिसके लिए उन्हें शाबाशी देने के बजाय उनकी टांग खिंचाई करके अपना मान बढ़ाना एकदम अनुचित है। आप खुद तय करें कि आपने इन लड़कों की कितनी मदद की है? इस पर सब निरुत्तर हो गए। मीटिंग समाप्त हो गई, इस निष्कर्ष के साथ कि कोचिंग स्कूल जैसा चल रहा है, चलता रहे। लेकिन, असर यह हुआ कि दोनों युवकों ने कोचिंग में सहयोग करना बंद कर दिया। कुछ समय वह स्कूल बंद हो गया।
अभिभावक बहुत दुखी हुए। शिवहरे समाज के तरक्कीपसंद लोगों को भी बड़ा अफसोस था। मैं भी दुखी था, और मेरा दुखी होना लाजिमी था। मैं एक मंदिर हूं, मेरे यहां ईश्वर मूरत की सूरत में विराजमान हैं। शिक्षा उस ईश्वर का ही अदृश्य रूप है। इसीलिए तो विद्यालय को विद्या मंदिर कहा जाता है। अपनी धर्मशाला में कोचिंग स्कूल देखकर मैं खूब इतराता था, सोचता था कि यह कोचिंग स्कूल आगे चलकर माध्यमिक विद्यालय बनेगा, और प्रगति कर कालेज भी बन सकता है। ईश्वर का मंदिर तो मैं हूं ही, शिक्षा का भी मंदिर बन जाउंगा और तब मेरा मान दोगुना हो जाएगा। लेकिन अफसोस…!
कोचिंग स्कूल बंद होने की कसक कहीं न कहीं उन युवकों के मन में भी थी। कामता प्रसाद साहू ‘उदित’, जिन्होंने पत्रकारिता और साहित्य जगत में बड़ी ख्याति अर्जित की, ने वर्ष 2011 में ‘शिवहरे वाणी’ पत्रिका शुरु की थी। ‘शिवहरे वाणी’ के एक अंक में प्रकाशित एक आलेख में उन्होंने इस घटनाक्रम का जिक्र करते हुए अपनी कसक जाहिर भी की। उन्होंने माना कि मेरे अहम ने मुझसे उस समय गलत निर्णय करा लिया था। वह कोचिंग स्कूल बंद नहीं होना चाहिए था।
शिवहरे नवयुवक मित्र मंडल से जुड़ी स्मृतियों को फिलहाल विराम देता हूं, आगे की कड़ियों में मित्र मंडल का जिक्र आएगा। आज समाज में धर्म, संप्रदाय और जाति के नाम से हिंसक घटनाएं हर रोज सामने आ रही हैं। ऐसे में मुझे एक किस्सा याद जा रहा है जिसने शिवहरे समाज को अन्य समाजों के बीच भी सौहार्द्र और सहयोग की एक मिसाल बन दिया। बताउंगा अगले एपीसोड में, तब तक के लिए इजाजत दीजिए, जय रामजी की..।
Leave feedback about this