by Som Sahu December 11, 2017 घटनाक्रम, धरोहर 173
सोम साहू
आत्मकथा (मंदिर की जुबानी) के गतांक से आगे….
जैसा कि पहले एपीसोड में मैंने बताया था कि 126 वर्ष की अवस्था में स्मृति कमजोर हो ही जाती है। पुरानी बातें और पुरानी यादें हमारे स्मृति पटल के अवचेतन हिस्से में चित्रों के रूप में अंकित होती हैं जिसमें वक्त के साथ नए-नए चित्र जुड़ते जाते हैं और पुराने चित्र उनमें दब जाते हैं, धुंधले पड़ जाते हैं। हालांकि, स्मृति पटल पर जोर डालने पर ये पुराने धुंधले चित्र चेतन के हिस्से में उभरते तो हैं, लेकिन उनका सिलसिलेवार होना जरूरी नहीं। ऐसे में मुझ जैसा कोई बुजुर्ग अपनी आत्मकथा सुनाए, कहे या लिखे, तो सिलसिला टूटना स्वाभाविक है।
खैर, यह भूमिका इसलिए है कि मेरा सिलसिला टूट रहा है। स्मृति पटल पर कुछ सबसे पुराने चित्र उभर आए हैं, तो पहले उसकी बात कर लेते हैं। विक्रमी सम्वत 1950 को शिवहरे वंश के पांच पंचों ने मेरी नींव रखी थी। अभी सन 2017 चल रहा, जो कि विक्रमी सम्वत 2074 है। विक्रमी सम्वत 1950 को हम 1893 ईंसवी भी कह सकते हैं और इस लिहाज से मेरी आयु 124 वर्ष बनती है। मैं अपनी अवस्था 126 वर्ष मान रहा हूं क्योंकि प्रबंध समिति की ओर से बीती 3 दिसंबर, 2017 को दाऊजी की पूर्णिमा का पर्व मेरे परिसर में 126वीं बार मनाए जाने की बात बताई गई है। हमारी गणना में 2 वर्ष का अंतर है, अब सही क्या है, इसका सप्रमाण उत्तर किसी के पास हो तो कृपया मेरी स्मृति दुरुस्त कराने की कृपा करें। जहां तक मैंने कई बुजुर्गों से सुना हैं जो संभवतः आज जीवित भी नहीं हैं, मेरी नींव विक्रमी सम्वत 1950 में ही रखी गई थी। शिवहरे समाज के पंचों ने अपने पास से रुपया लगाकर मेरा यानी मंदिर का निर्माण प्रारंभ किया था। इसके लिए बैनामा कर यह जमीन खरीदी गई।
एक बात और याद आई, बता दूं। उस समय आगरा के सामाजिक पटल पर शिवहरे वंश एक समृद्ध होता समाज था और अपनी मजबूत पहचान बना रहा था। कई समृद्ध समाज आगरा नगर में मंदिरों और धर्मशालाओं की स्थापना कर चुके थे, जहां उनके शादी-ब्याह और अन्य मांगलिक कार्यक्रम हुआ करते थे। उस समय शिवहरे समाज में पंच की हैसियत रखने वाले श्रीमान लाला मौजारामजी, लाला हीरालालजी, हकीम रामचंद्रजी, लाला बल्देव प्रसादजी और मयारामजी के मन में भी समाज के लिए एक ऐसी ही धरोहर स्थापित करने का विचार आया था। शिवहरे समाज के ही कुछ बुजुर्गों से ऐसा सुना है कि सदर भट्टी चौराहे पर जहां मैं हूं, वहां पहले एक अखाड़ा हुआ करता था। हर अखाड़े की तरह यहां भी हनुमानजी की प्रतिमा प्रतिष्ठापित थी। समाज के पंचों ने उस अखाड़े की जमीन को मंदिर निर्माण के लिए उपयुक्त जाना। इसकी एक वजह तो यह थी कि सदरभट्टी चौराहा तत्कालीन आगरा नगर के बीचों-बीच था, और दूसरी यह कि स्थल नाई की मंडी से लगा हुआ है जहां शिवहरे परिवार बड़ी संख्या में रहा करते थे।
तो पंचों ने अखाड़े की वह जमीन खरीदी, और सबसे पहला काम उसकी चाहरदीवारी बनाने का किया। भगवान हनुमानजी की जो प्रतिमा थी, उसे वहीं रखा गया और वह आज भी उसी जगह विराजमान है। ब्रजराज श्री दाऊजी महाराज की एक प्रतिमा प्रतिष्ठापित कर दी गई, नियमित पूजा-अर्चना होने लगी और इस तरह मैं एक छोटे व साधारण मंदिर के रूप में अस्तित्व में आया। अगली पीढ़ी में लाला नंदकिशोरजी, हकीम गिरवरलालजी, लाला चुन्नीलाल जी सहित समाज के तत्कालीन प्रतिष्ठित जनों ने मेरे विशाल भवन की नींव रखवाई। तदोपरांत मेरा क्रमशः विकास होता गया। मुझे खुशी है कि मेरे विकास की प्रक्रिया थमी नहीं है, और एक पुनरुद्धार योजना के तहत मुझे आज की जरूरत के अनुरूप उपयोगी बनाए जाने की दिशा में काम शुरू हो गया। मुझे भी लगता है कि अपने आधुनिक और अधिक उपयोगी स्वरूप की बदौलत मैं फिर से शिवहरे समाज के लोगों के मांगलिक कार्यक्रमों की मेजबानी करूंगा, मेरे आंगन में धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों की संख्या बढ़ेगी, विचार गोष्ठियां होगीं। आप फिर से मेरे और करीब आएंगे, मेरी उदासी दूर करेंगे, मेरा सन्नाटा तोड़ेंगे….।
(क्रमशः)
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