हरिद्वार।
तीर्थनगरी हरिद्वार के अवधूत मंडल आश्रम अब कलचुरी समाज की पहचान का एक नया केंद्र बन रहा है। छह अप्रैल हनुमान प्रकटोत्सव के पावन दिन अवधूत मंडल आश्रम के विशाल परिसर में कलचुरी समाज के आराध्य भगवान श्री सहस्त्रबाहु अर्जुन की प्रतिमा की स्थापना की जा रही है, जिसमें देशभर से कलचुरी समाजबंधु पहुंच रहे हैं। इस मौके पर कलचुरी समाज के प्रमुख संगठन स्वजातीय संत महामंडलेश्वर श्री संतोषानंद देवजी महाराज के सानिध्य और मार्गदर्शन में सामाजिक एकता की दिशा में एक बड़ा घोषणा भी कर सकते हैं।
दरअसल अवधूत मंडल आश्रम से कलचुरी समाज के नए जुड़ाव का आधार हैं इस आश्रम के अध्यक्ष महामंडलेश्वर श्री संतोषानंद देवजी महाराज, जो स्वयं कलचुरी समाज से हैं। यूं तो साधु-संत समाज की धरोहर होते हैं, वें किसी जाति या समुदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि संपूर्ण मानव जाति के कल्याण का संदेश देते हैं। लेकिन, हिंदू धर्म में ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब साधु-संतों ने अपनी जाति विशेष के लोगों को नई दिशा देने का कार्य किया है। ऐसे भी मामले हैं जब जाति विशेष के लोग स्वजातीय संतों के मार्गदर्शन में एकजुट होते हैं। कर्नाटक में कलचुरी समाज की मांगों को लेकर स्वामी श्री प्रवणानंदजी के मार्गदर्शन में निकाली गई पदयात्रा इसकी सबसे ताजा मिसाल है। संभवतः इस पदयात्रा की सफलता ने ही कलचुरी समाज के सामाजिक संगठनों को महामंडलेश्वर श्री संतोषानंद देवजी महाराज के मार्गदर्शन में एकजुट होने के लिए प्रेरित किया है।
अवधूत मंडल आश्रम के अध्यक्ष स्वामी संतोषानंद देवजी ने अपना संपूर्ण जीवन जन-जन में धर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में समर्पित कर दिया है। महापुराणों के ज्ञाता स्वामी सत्यदेव के परमशिष्य स्वामी संतोषानंद देवजी स्वयं भी वेद-पुराणों के प्रकांड विद्वान हैं। स्वामी संतोषानंद देवजी का जन्म बाबा काशी विश्वनाथ की पावन भूमि वाराणसी के उच्च कुलीन जायसवाल परिवार में हुआ। माताजी श्रीमती चंद्रदेवी शांत स्वभाव की महिला थीं, पिताजी ईश्वरचंद्रजी प्रतिष्ठित व्यवसायी थे। माताजी ने उनका नाम संतोष रखा था। उनका लालन-पालन बड़ी सहानुभूति के साथ हुआ। बचपन ने बालक संतोष की रुचि धर्म और अध्यात्म की ओर हो गई थी। किशोरावस्था में वह दो बार बिना बताए गृह-त्याग कर हरिद्वार चले आए थे। बाद में माता-पिता के आग्रह पर लौट गए। सामाजिक जीवन के लिए युवा संतोष कलकत्ता चले गए जहां उन्हें गुरूजी सत्यदेव महाराज का पावन सानिध्य प्राप्त हुआ।
गुरुजी के सानिध्य में धर्म और संस्कृति के प्रति उनमें विशेष रुझान जागृत हुआ। उन्होंने वेद-पुराणों का गहन अध्ययन किया और 1993 में बसंत पंचमी के दिन गुरुदेव स्वामी सत्यदेवजी महाराज से संन्यास दीक्षा ग्रहण की और स्वामी संतोषानंद देवजी के नाम से अलंकृत हुए। स्वामी संतोषानंद देवजी ने इसके बाद स्वयं को धर्म एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार में समर्पित कर दिया। उन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष की साइकिल यात्रा की। भगवान शंकर के द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन किए, कैलाश पर्वत, मानसरोवर, अमरनाथ, अमरकंटक आदि धार्मिक स्थलों पर तपस्या की और फिर अपने गुरुस्थान अवधूत मंडल आश्रम को अपनी तपोस्थली बनाया।
स्वामी संतोषानंद देवजी महाराज के बारे में कहा जाता है कि उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर हनुमानजी ने स्वयं स्वप्न में उन्हें दर्शन दिए, जिसके बाद स्वामीजी ने श्री बद्रीनाथ में हनुमानजी की उपासना की और कई वर्षों तक अन्न ग्रहण नहीं किया। अनेक दुर्गम स्थानों पर रहकर हनुमानजी की तपस्या की जिसके बाद वह हनुमानजी के परमभक्त के रूप में प्रतिष्ठापित हुए। उनके बारे में माना जाता है कि स्वामीजी की वाणी हनुमानजी द्वारा सिद्ध है। 7 मई, 2004 को स्वामी सतोषानंद देवजी के गुरुजी स्वामी सत्यदेवजी ब्रह्मलीन हो गए। अनवरत धर्मनिष्ट रहकर ‘सर्वभूत हितेरतः’ को सार्थक करते हुए अनेक यज्ञ-अनुष्ठानों का परायण करने वाले स्वामी संतोषानंद देवजी महाराज को उनके गुरुदेव का उत्तराधिकारी माना गया और उन्होंने अवधूत मंडल आश्रम संस्था के श्रीमहंत एवं अध्यक्ष का कार्यभार ग्रहण किया। वर्ष 2007 में प्रयागराज महाकुंभ में छह जनवरी को त्रिवेणी संगम पर उदासीन बड़ा अखाड़ा द्वारा उन्हें महामंडलेश्वर के पद पर अभिशक्त किया गया।
सवामी संतोषानंद देवजी महाराज के नेतृत्व और मार्गदर्शन में स्वामी अवधूत मंडल आश्रम संस्था द्वारा संचालित आश्रमों (गोपालधाम आश्रम जस्सा राम रोड हरिद्वार, अवधूत मंडल आश्रम केसरी बाग अमृतसर, अवधूत मंडल आश्रम उजेली उत्तरकाशी) को उन्नति पथ पर अग्रसर हैं। इन आश्रमों में दीन-दुखियों के लिए अस्पताल, संस्कृत शिक्षा, छात्रावास, गौशाला, संतसेवा, संतनिवास, अतिथि सत्कार आदि की व्यवस्थाओं में निरंतर विस्तार हो रहा है। अब बद्रीनाथ, केदारनाथ, अलवर, गुजरात आदि स्थानों पर आश्रमों के नवनिर्माण का संकल्प उन्होंने लिया है।
(अगली कड़ी में अवधूत मंडल आश्रम की स्थापना और इतिहास)
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