आगरा।
भगवान श्रीकृष्ण हमारी संस्कृति के एक अद्भुत एवं विलक्षण महानायक हैं। वह राजनीति औऱ जीवन दर्शन के प्रकांड पंडित हैं, ज्ञान-कर्म-भक्ति का समन्वयवादी धर्म उन्होंने प्रवर्तित किया। वह सभी रचनात्मक एवं सृजनात्मक प्रवृत्तियों के स्वामी हैं। आगरा के शिवहरे समाजबंधु अपनी दोनों धरोहरों ‘मंदिर श्री दाऊजी महाराज’ और ‘मंदिर श्री राधाकृष्ण’ में हर वर्ष जन्माष्टमी पर अदभुत सजावट कर भगवान कृष्ण के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा व्यक्त करते हैं। हालांकि अब काफी-कुछ बदल चुका है, फिर भी जन्माष्टमी के पर्व को लेकर उत्साह और उल्लास में आज भी कोई कमी नहीं है।
एक दौर था जब राधाकृष्ण मंदिर जन्माष्टमी पर अपनी अदभुत झांकियों के चलते आगरा शहर ही नहीं, आसपास के गांव-कस्बों तक में चर्चित रहता था। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ीं झांकियों के अतिरिक्त उस समय के ज्वलंत मुद्दों पर आधारित और सामाजिक संदेश देने वाली झांकियां भी तैयार की जाती थीं। इन झांकियों को बनाने में उस दौर के नवीनतम ट्रेड्स और टैक्नोलॉजी का उपयोग किया जाता था। जानकर आश्चर्य हो सकता है कि आगरा में जन्माष्टमी पर पहली इलेक्ट्रॉनिक झांकी का प्रदर्शन भी राधाकृष्ण मंदिर में किया गया था जिसकी कमान नाई की मंडी निवासी स्व. श्री आनंद गुप्ता (सह-संस्थापक शिवहरेवाणी) ने संभाली थी। लोगों में इन झांकियों को लेकर इस कदर क्रेज था कि जन्माष्टमी के बाद भी तीन-तीन दिन तक दर्शनार्थियों की भीड़ यहां उमड़ती रहती थी। अस्सी के दशक के अंत तक (लगभग 1990 तक) हर साल जन्माष्टमी पर राधाकृष्ण मंदिर की झांकियों को लेकर आगरा भर के लोगों में जबरदस्त क्रेज था।
वहीं शिवहरे समाज की प्रमुख धरोहर सदर भट्टी चौराहा स्थित मंदिर श्री दाऊजी महाराज भी जन्माष्टमी पर लोगों को आकर्षित करता था। आजादी के ठीक बाद शिवहरे मित्र मंडल के बैनर तले युवाओं ने शिवहरे समाज में बाकायदा एक सुधारवादी आंदोलन चलाया था, और दाऊजी मंदिर इनकी गतिविधियों का केंद्र था। शिवहरे मित्र मंडल के युवा वॉलेंटियर्स हर साल जन्माष्टमी पर दाऊजी मंदिर में ऐसी झांकियों का प्रदर्शन करते थे, जो सामाजिक मुद्दों पर उनकी आधुनिक सोच को प्रदर्शित करती थी। ये झांकियों ज्यादातर समाज में शिक्षा के विस्तार, कुरीतियो के दमन, सात्विकता अपनाने और विज्ञान के चमत्कारों पर केंद्रित रहती थीं।
समय के साथ दोनों ही धरोहरों में जन्माष्टमी पर सजावट के स्वरूप व तौर-तरीकों में बदलाव आना तो स्वाभाविक ही है। 90 के दशक से सामाजिक चेतना व संदेशों वाली झांकियों की जगह धार्मिक झांकियों की प्रधानता होने लगी। बच्चों को भगवान का स्वरूप बनाकर बिठाया जाने लगा। बर्फ से गुफाएं बनाई जाने लगी, रूई से पहाड़ बनाए जाते, लकड़ी का बुरादा और पेड़ों की हरी-भरी टहनियों का इस्तेमाल सजावट में प्रधानता से किया जाने लगा। इस दौर में दाऊजी मंदिर में सजावट की कमान मुख्यतः नाई की मंडी के युवाओं के हाथ में रहती थी, तो राधाकृष्ण मंदिर को सजाने का जिम्मा ज्यादातर लोहामंडी के युवाओं के पास होता था। लेकिन, अब वो भी नही रहा। अब जन्माष्टमी पर समाज के युवाओं की वैसी भागीदारी नहीं दिखती। गत लगभग दस वर्षों से दोनों ही मंदिरों में जन्माष्टमी की सजावट का जिम्मा उनकी कमेटियों के पास रहने लगा है। दोनों ही धरोहरों में अब झांकियां नहीं सजतीं, बल्कि स्वरूपों के आकर्षक श्रृंगार-पोशाक, फूलबंगले, फूलों से सजावट, आर्टिफिशियल हरियाली और फव्वारे आदि के उपयोग का चलन बढ़ा है, जो आकर्षक तो खूब लगते हैं लेकिन इसमें शिवहरे समाज की वैसी रचनात्मकता, सृजनात्मकता और कलात्मक अभिरुचियों के दर्शन नहीं होते, जो आज से 40-50 साल पहले जन्माष्टमी पर सजीं झांकियों में प्रदर्शित होते थे, जिनकी यादें आज भी समाज को गौरवान्वित करती हैं ।
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