by Som Sahu August 02, 2017 Uncategorized, आलेख, घटनाक्रम 473
सोम साहू
मुझको तो कोई टोकता भी नहीं,
यही होता है खानदान में क्या।
अनोखे शायर जॉन एलिया की गजल का आसान सा लगने वाला यह शेर वास्तव में दो लाइनों में सिमटा जिंदगी का फलसफा है, सबसे पुरानी सामाजिक संस्था की रूह की बयानी है, जिसे हम परिवार कहते हैं। यूं ही संजीव गुप्ता प्रकरण पर विचार करते–करते यह शेर याद आ गया। मौजू लगा तो सोचा यहीं से बात शुरू करूं।
मुझे संजीव गुप्ता से पूरी हमदर्दी है, और मैं इस मामले में उसे अकेला दोषी नहीं मानता हूं। मामले में चार किरदार तो सामने हैं, संजीव, उसकी पत्नी सारिका, साला सागर और भांजा विकल्प। लेकिन असंख्य किरदार हम जैसे भी हैं जिनकी मेहरबानी से वह एक गलत रास्ते पर बहुत आगे बढ़ गया, और पैसे के गुमान ने उसके अपराध बोध को खत्म कर दिया। वह सही और गलत के बीच के अंतर को भूल गया। मेरी नजर में संजीव गुप्ता प्रकरण इस बात को समझने और समझाने का एक उत्तम उदाहरण(classical example) है।
सही और गलत के बीच के फर्क को समझाने की पहली जिम्मेदारी परिवार की होती है। व्यक्ति परिवार से ही सीखता है कि उसे घर से बाहर समाज के सामने किस रूप में पेश होना है, कैसा व्यवहार करना है। मोहनदास करमचंद गाधी के महात्मा गांधी बनने की नींव उनके परिवार में ही पड़ी थी। खुद महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि किस तरह पिता से झूठ बोलने का उन्हें पश्चाताप हुआ और जिसका प्रायश्चित उन्होंने माफी मांगकर किया। अपनी इसी उपयोगिता के चलते परिवार नाम की संस्था अपने उदभव से लेकर आज तक लगातार मजबूत होती रही है। एक बच्चा अपने परिवार से ही वो सपने ग्रहण करता है जो उसके भविष्य के रास्ते तय करते हैं। कहने का आशय यह कि यदि संजीव को उसके किए के लिए परिवार या सच्चे दोस्तों या हमदर्दों की ओर से कभी कोई टोका–टाकी होती या मजबूत प्रतिरोध होता, तो शायद उसके जीवन पर आज यह हश्र बरपा न होता।
दोषी वे लोग भी हैं जिन्होंने संजीव के अमीरी के गुमान को पाला–पोसा, और उसे टैक्स चोरी से कमाई गई अपनी काली रकम को ठिकाने लगाने का जरिया बना लिया। वे भी कम दोषी नहीं जो संजीव को उद्योगपति के रूप में मिथ्या सम्मान देने लगे, जबकि उसका बीसी का धंधा न तो रोजगार सृजित करता था, और ना ही कोई उत्पादन करता था। संजीव ने दूसरों के पैसों पर अमीरी का आवरण ओढ़ लिया था, और इस अदा ने उसके लिए पैसे की आमद को आसान बना दिया। नतीजा यह कि महंगी पार्टीज, महंगे कपड़े, महंगी कारें उसकी लाइफ स्टाइल का हिस्सा बन गई। संजीव का गुमान बढ़ता रहा, इस स्तर पर आ गया कि टके में बिकने वाले कथित यूट्यूब चैनलों पर वह अपनी पत्नी के साथ वेलेंटाइन डे और शहीद दिवस जैसे अवसरों पर राष्ट्र के नाम संदेश देने लगा। संजीव मान बैठा कि मेहनत करके कमाना गधों का काम है, बिना मेहनत किये अधिक पैसा कमाना ही जिंदगी का असली टेलेंट है। संजीव अपनी देनदारियों से कतई परेशान नहीं था, अपने इस टेलेंट पर भरोसा कर उसने देनदारियों से बचने का उपाय तलाश लिया था। कुछ दिन पहले ही पत्नी के साथ विदेश घूमने गया, वहां से आकर्षक तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट कीं। लौटकर अपने अपहरण की खबर से वह सबकों चौका देना चाहता था…। मगर अपने ही जाल में फंस गया।
यही होता है जब हम बुनियादी जरूरतों से ऊपर उठने के बाद लग्जरी लाइफ का पीछा करते हैं, और इस क्रम में नैतिकता तथा इंसानियत को ताक पर रख देते हैं। संजीव कुछ दिन बाद जमानत पर बाहर आ जाएगा, फिर मुकदमा लड़ेगा, हो सकता है सजा भुगतनी पड़ जाए या संशय का कोई लाभ मिल जाए। लेकिन उसे इस हाल में पहुंचाने में भागीदार रहे उसके अपने लोग ताउम्र‘अंतरात्मा के कैदी‘ (prisoner of conscience) बने रहेंगे।
बात समझना चाहें तो यह समझने की है कि जिंदगी में मेहनत और ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं होता, तरक्की का कोई शार्टकट नहीं होता। अंतत: व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व व कृतित्व को ही समाज का सच्चा सम्मान हासिल होता है, दिखावे और अमीरी को नहीं। हमेशा दोस्तो में घिरे रहने वाला संजीव अपने बरामद होने के बाद से नितांत अकेला पड़ गया था। जिन्हें वह दोस्त समझता रहा, वे महज अच्छे दिनों के साथी (fair weather friend) साबित हुए। व्यक्तिगत तौर पर यह भी समझें कि अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करना हमारा कर्तव्य है, लेकिन इसके लिए माध्यम की पवित्रता पहली शर्त होनी चाहिए। अंधी दौड़, अंधे कुएं में धकेल देती है।
फिर अपने प्यारे शायर जॉन एलिया के ही इस शेर से बात समाप्त करुंगा–
हालते–हाल के सबब, हालते–हाल ही गई
शौक में कुछ नहीं गया, शौक की जिंदगी गई।
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