नई दिल्ली/इंदौर।
मौजूदा दौर में केंद्र व प्रदेशों की राष्ट्रवादी सरकारों ने प्राचीन शहरों को उनकी पुरानी पहचान और वैभव दिलाने का मानो अभियान छेड़ रखा है, कई शहरों के लोकप्रिय नाम तक बदल दिए मगर कलचुरी तीर्थ महेश्वर की कोई सुध नहीं ली जा रही है। ऐसे में कलचुरी समाज के प्रमुख संगठन ‘राष्ट्रीय कलचुरी एकता महासंघ’ ने अपने आराध्य भगवान सहस्त्रबाहु अर्जुन की इस वैभवशाली नगरी को उसका खोया हुआ वैभव दिलाने के प्रयास एक बार फिर तेज कर दिए हैं।
महासंघ की राष्ट्रीय संयोजिका श्रीमती अर्चना जायसवाल ने केंद्रीय पर्यटन मंत्री श्रीपाद यशो नाइक, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान एवं पर्यटन मंत्री सुश्री ऊषा ठाकुर को पत्र लिखकर महेश्वर में भगवान सहस्त्रबाहु की 100 फुट ऊंची प्रतिमा स्थापित करने, सौ कमरों के एक कलचुरी समाज भवन का निर्माण कराने तथा प्रतिवर्ष यहां सहस्त्रबाहु महोत्सव का आयोजन कराने की मांग पुरजोर तरीके से रखी है। श्रीमती जायसवाल के साथ प्रदेश अध्यक्ष राकेश राय एवं कार्यकारी अध्यक्ष किशोर राय के संयुक्त हस्ताक्षरित इस पत्र में अनुरोध किया गया है कि देशभर के कलचुरी समाज बंधुओ की भावनाओ को ध्यान में रखते हुए इन मांगों को पूरा करने के लिए जल्द से जल्द कदम उठाए जाने चाहिए। केंद्रीय पर्यटन मंत्री श्रीपाद यशो नाइक स्वयं भी कलचुरी समाज से ही हैं, इस नाते इस कार्य में उससे विशेष सहयोग की अपेक्षा पत्र में की गई है और भरोसा जताया है कि उऩके प्रयास से समाज की यह महती मांग जल्द पूर्ण होगी।
सहस्त्रबाहु की जीत का प्रतीक है रावणेश्वर मंदिर
आपको बता दें कि महेश्वर का इतिहास युगों पुराना है। इसकी प्राचीन नाम महिष्मति है जिसकी स्थापना कलचुरी समाज के आराध्य महाप्रतापी प्रजापालक भगवान सहस्त्रबाहु अर्जुन ने की थी। यह उनके विशाल राज्य की राजधानी थी। रामायण में उल्लेख है कि एक बार रावण माहिष्मती से गुजर रहा था, तब उसने नर्मदा किनारे रेत के शिवलिंग बनाकर पूजन शुरू किया। ठीक उसी समय कुछ दूर सहस्त्रबाहु अर्जुन अपनी रानियों के साथ स्नान और रमण कर रहे थे। उन्होंने अपनी हजारों भुजाओं से नर्मदा का बहाव रोका तो पानी बढ़ने लगा और रेत के शिवलिंग बह गए। क्रोधित रावण ने सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया परंतु हार गया। तब सहास्त्रार्जुन ने रावण को कैद कर छह महीने तक माहिष्मति में अपनी घुड़साल में रखा था। महेश्वर में बना रावणेश्वर मंदिर भगवान सहस्त्रबाहु की इसी प्रकरण का प्रतीक है।
दिव्य ज्योति में समाहित हैं सहस्त्रबाहु अर्जुन
भगवान विष्णु, सुदर्शन चक्र और परशुराम का जो उल्लेख मिलता है, उसका केंद्र भी माहिष्मति ही है। पौराणिक उल्लेख है कि सुदर्शन चक्र ने एक बार अहंकारवश भगवान विष्णु से ही युद्ध करने की इच्छा व्यक्त कर दी। विष्णु ने सुदर्शन से कहा कि तुम्हारी इच्छा पृथ्वी पर अवतार लेकर पूरी करूंगा। वही सुदर्शन त्रेता युग में सहस्त्रार्जुन के रूप में पैदा हुए। उसी कालखंड में विष्णु ने परशुराम के रूप में अवतार लिया। बाद में पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित करने का प्रण लेकर परशुराम ने सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया। इस भीषण युद्ध में सहस्त्रबाहु की कई भुजाएं कट गईं, जब केवल चार भुजाएं बचीं, तक उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप का ध्यान आया। उसी समय भगवान शंकर भी प्रकट हुए और सहस्त्रार्जुन को शिवलिंग में दिव्य ज्योति के रूप में समाहित कर लिया। जहां यह घटनाक्रम हुआ, वहीं पर आज राज राजेश्वर शिव मंदिर है जहां 11 अखंड दीपक सदियों से जल रहे हैं।
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