May 15, 2024
शिवहरे वाणी, D-30, न्यू आगरा, आगरा-282005 [भारत]
समाचार साहित्य/सृजन

झालावाड़ के शिवदयाल पारेता ने गाय के गोबर से बनाई गणेश प्रतिमाएं; सैकड़ों घर-पंडालों में पहुंचे ‘इको-फ्रेंडली गणेशा’; गांव के श्रमिकों को गांव में दिया काम

झालावाड़।
राजस्थान के झालावाड़ में इस बार गणेश चतुर्थी पर श्री शिवदयाल पारेता के ‘इको-फ्रेंडली गणेशा’ को लेकर लोगों में खासी उत्सुकता रही। दरअसल पारेता ने गाय के शुद्ध गोबर से गणेश प्रतिमाएं तैयार की हैं, जो बहुत से लोगों के लिए बिल्कुल नई बात थी। अनुमान है कि नगर में एक हजार से अधिक जगहों पर इनके ही ‘इको-फ्रेंडली गणेशा’ की स्थापना होगी। गाय के गोबर से बनी इन मूर्तियों से किसी प्रकार के प्रदूषण की बात तो छोड़ ही दीजिए, उल्टे इनका विसर्जन मिट्टी और जल की गुणवत्ता बढ़ाने वाला साबित होगा। 
झालावाड़ के अकलेरा उपखंड के गांव सरड़ा के पूर्व सरपंच शिवदयाल पारेता ने शिवहरेवाणी को बताया कि उन्होंने मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा के सौसर मगर स्थित स्वानंद गो-विज्ञान अनुसंधान केंद्र से गाय के गोबर से देवी-देवताओं की मूर्तियां, दीपक, गमले आदि बनाने का प्रशिक्षण लिया है। संस्थान के संचालक गुरूजी डा.जितेंद्र भकने की प्रेरणा से उन्होंने झालावाड़ में अपने गांव के लोगों को जोड़कर यह कार्य शुरू किया है। वह प्रतिदिन करीब 20 मूर्तियां और दीपक, लक्ष्मी जी के चरण, गमले,  मोबाइल स्टैंड आदि बना रहे हैं। श्री पारेता की इस पहल का सबसे बड़ा फायदा गांव के श्रमिकों को हो रहा है जिन्हें अब गांव में ही काम मिल जा रहा है। 
पारेता ने शिवहरेवाणी को बताया कि मूर्ति के निर्माण के लिए वह सबसे पहले गांव से ही गोबर इकट्ठा करवाते है। फिर इस गोबर को धूप में सुखाने डाल देते हैं। गोबर सूखने पर इसे पीसकर महीन पाउडर बनाया जाता है। फिर गोबर के पाउडर में गन पाउडर मिलाकर इसे पानी से गीला कर लेते हैं। गीले पाउडर को रबड़ फाइबर के सांचों में ढालकर मूर्ति का आकार दिया जाता है। फिर इन मूर्तियों को सुखा लिया जाता है। सूखने के बाद कई बार मूर्ति में दरार आ जाती है तो गोबर के गीले मिश्रण से इन दरारों को भरकर सुखाया जाता है। पूरी तरह सूखने के बाद इन मूर्तियों को हल्दी, चूना और पानी के कलर का उपयोग रंग दिया जाता है। उन्होंने बताया कि फिलहाल वह एक फीट या इससे छोटे आकार की मूर्तियां तैयार कर रहे हैं। एक फीट की गणेश प्रतिमा की कीमत 400 से 500 रुपये के बीच आती है जिसे प्लास्टर ऑफ पेरिस या मिट्टी से तैयार प्रतिमाओं के मुकाबले कम ही माना जाएगा। 
आपको बता दें कि गणेश चतुर्थी के पर्व पर गणेश प्रतिमा की स्थापना की परंपरा मूलतः तो महाराष्ट्र में रही है, लेकिन अब त्योहार पूरे देश में इसी प्रकार मनाया जाने लगा है। जगह-जगह पूजा पंडाल बनते हैं, जहां दस दिन तक उत्सव का वातावरण रहता है। मुश्किल यह है कि हर पूजा मंडलियां गणेशजी की सबसे सुंदर प्रतिमा स्थापित करने की होड़ में रहती है औऱ इसके चलते  वे प्लास्टिक, प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से बनी और कैमिकल कलर्स से सजाई गईं प्रतिमाओं को प्राथमिकता देते हैं, जबकि ये पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक होती हैं। इस तरह मूर्तियां सालों-साल पानी में गलती नहीं हैं, और कैमिकल कलर्स पानी में जगह घोल देते हैं। वहीं गाय के गोबर से बनी हुई मूर्तियां पर्यावरण के लिए बहुत हितकारी है। शिवदयाल पारेता कहते हैं कि गणेश प्रतिमा की स्थापना में भाव और वातावरण, दोनों का शुद्ध होना जरूरी है, और गाय के गोबर से निर्मित मूर्तियां इन दोनों अनिवार्यताओं को पूर्ण करती हैं। 
श्री पारेता ने बताया कि पूजा अर्चना के पश्चात विसर्जन में हल्की होने के कारण इन्हें आसानी से उठाया जा सकता है, साथ ही इनका विसर्जन गमले, मिट्टी, नदी, तालाब, पोखर में किया जा सकता है। गाय के गोबर से बनी मूर्तियां पानी के साथ घुल जाती है और मिट्टी एवं पानी की गुणवत्ता बढ़ा देती है। हिन्दू धर्म के अनुसार गाय के गोबर में 36 कोटी देवी देवताओं का वास होता है। इसमें पाये जाने वाले पोषक तत्व खनिज पदार्थ, लवण मिट्टी की उर्वरकता बढ़ाते हैं। उन्होंने बताया कि वह प्राकृतिक व इकोफ्रेंडली रंगों पर काम कर रहे हैं, और उन्हें उम्मीद है कि वह इसमें भी कामयाब होंगे। 
बतै दें कि श्री शिवदयाल पारेता वर्ष 2015 से लेकर 2020 तक सरड़ा गांव के सरपंच रहे थे। इनकी गांव में ही दुकानें हैं जिनके किराये से उन्हें अच्छी आमदनी प्राप्त हो जाती है। हालांकि वह अब कोटा के विवेकानंद नगर में परिवार के साथ रहते हैं। उनकी पत्नी श्रीमती मंजू बाई कोटा में ही सरकारी अध्यापिका हैं। उनके दो बेटे हैं। बड़ा बेटा हिमांशु पारेता पेशे से इंटीरियर डिजाइनर है और कोटा में काम करता है। वहीं छोटा बेटा दिव्यांशु पारेता सिविल इंजीनियरिंग से पॉलिटेनिकल पास है और सरड़ा गांव मे मेडिकल स्टोर चलाता है। 
 

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