हर त्योहार का एक आर्थिक पक्ष होता है, खासकर पांच दिन मनाए जाने वाले दीपावली में तो यह स्पष्ट रूप से नजर आता है। दीपावली में धन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। धन की भी पूजा होती है। चांदी के सिक्कों को वेदी पर रख कर उन्हें अक्षत रोली का टीका लगाया जाता है और उनके सामने दीप जलाया जाता है। दीवाली में खाता बही की भी पूजा होती है और नई बही की शुरुआत की जाती है। और फिर जुआ भी खेला जाता है। इस पूजा से पता लगता है कि भारत के लोक जीवन में पारंपरिक रूप से धन को किस-किस दृष्टि से देखा जाता रहा है।
सिक्कों की पूजा का अर्थ है, धन का सम्मान। लेकिन लक्ष्मी और खाता बही की पूजा का अर्थ है, धन के स्रोत और धन की प्राप्ति के लिए प्रयोग किए जाने वाले उपकरणों का सम्मान। और जुआ खेलने के पीछे यह बात समझ लेना है कि धन से धन प्राप्त करने में जोखिम है। इनमें आप धन पा भी सकते हैं और गंवा भी सकते हैं। यानी धन की आपमें कोई निष्ठा नहीं है। इसीलिए आप भी धन के आने औऱ जाने के प्रति निरपेक्ष भाव रखिए। धन प्राप्ति के लोभ में आकर अनैतिक व अपवित्र काम मत कीजिए और उसे गवां देने पर हताश भी न होइए।
पारंपरिक लक्ष्मी पूजन में इन दिनों चांदी का सिक्का रखा जाता है, लेकिन यह रिवाज बहुत पुराना नहीं है। चांदी के सिक्के 19वीं सदी में प्रचलन में आए थे। इसके पहले पूजा में सोने के सिक्के भी रखे जाते थे। लेकिन बात सिर्फ चांदी के सिक्कों की नहीं है। चांदी का रंग सफेद होता है। लक्ष्मी पूजन के समय उन्हें दूध से स्नान कराते हैं और सफेद मिठाई तथा सफेद खीलें ही चढ़ाते हैं। सफेद रंग पवित्रता और निष्कलंकता का प्रतीक है। दीपावली पूजन में श्वेत के प्रयोग का आशय शायद इसी पवित्रता से है। इसका आशय यह हुआ कि जो धन पवित्र स्रोत, पवित्र उपकरणों और पवित्र माध्यमों (कृत्य) से प्राप्त हो, वही पूज्नीय है।
दिवाली मध्यकाल में भी मनाई जाती थी। ‘आईने अकबरी’ में अबुल फजल ने लिखा है कि उस समय वणिक समुदाय इसे ‘आलोक ज्वाला’ कहता था लेकिन उससे बहुत पहले आए अल बरूनी के मुताबिक बादशाह इस मौके पर जगह-जगह बांस के खंबे खड़े करवाकर उन पर कंदीलें लटकवाते थे। और उससे भी चार सौ साल पहले लगभग सातवीं शताब्दी में लिखी किताब श्रीहर्ष रचित नाटक ‘नागानंद’ में दीवाली के उत्सव का विशद वर्णन मिलता है। चालुक्य शासकों के समय भी यह त्योहार खूब धूमधाम से मनाया जाता था। लेकिन इस त्योहार की शुरुआत नगरीय जीवन में नहीं हुई थी और न ही आरंभ में यह व्यापारी (वणिक) वर्ग का उत्सव था। यह ग्रामीण किसानों का सामूहिक त्योहार था जो समय के साथ व्यापारियों का भी त्योहार बना और इसमें व्यक्तिगत संपन्नता के प्रदर्शन का तत्व आया।
विद्वान मानते हैं कि शुरू में दीवाली का संबंध प्रजनन और कृषि नियंत्रण से था। प्राचीन काल में किसान अपनी फसल को आश्विन माह के कीट प्रजनन से बचाने के लिए अरंडी के तेल के दीये जलाते थे और मंदिरों में भजन-कीर्तन किया करते थे। रात के पहले पहर में होने वाले इन कीर्तन सभाओं में आने-जाने वाले किसान मशालें लेकर खेतों की पगडंडियों से गुजरते थे। इन मशालों की लपट की ओर आकर्षित होकर अधिकांश कीट-पतंगे खत्म हो जाते थे। इस तरह पारिस्थितिक संतुलन बना रहता था और फसलें सुरक्षित रहती थीं। मजे की बात यह है कि अमेरिकी शोधकर्ताओं ने भी इसे कीट प्रजनन के नियंत्रण का सबसे अच्छा देशज उपाय माना है। इस निष्कर्ष की पुष्टि नृविज्ञानी भी करते हैं। अब आप आज से ढाई हजार साल पहले के उस कृषक समाज की कल्पना कीजिए, जो न सिर्फ अपने पसीने से इस देश की मिट्टी को सींच रहा था, बल्कि अपनी अद्भु त बुद्धि से उन परंपराओं को भी विकसित कर रहा था, जो उसकी खेती के साथ पर्यावरण के भी अनुरूप थीं।
राम के अयोध्या लौटने या नरकासुर के मारे जाने या बाली के प्रस्थान या महावीर स्वामी के परिनिर्वाण (527 ईसा पूर्व) की कथाएं तो आपने कई बार सुनी होंगी। इसमें शक नहीं कि हमारे पौराणिक शास्त्रों में ज्ञान का भंडार है और हिंदू संस्कृति में उसका अत्यधिक महत्व है। लेकिन दीपावली मनाते समय हजारों वर्ष पूर्व के कृषक समाज के बारे में भी सोचिएगा जिनके मन-मस्तिष्क जीवन के अनुभवों, ज्ञान और तार्किकता से रोशन थे। वे अपनी आने वाली पीढ़ी को संदेश दे रहे थे कि राम के आने का उत्सव मनाना ही है तो अरंडी के तेल के दीये जलाओ। इससे तुम्हारे फसलों की रक्षा होगी। अपनी मेहनत मेहनत और पसीने से उगाई गई फसलों का घर आना ही लक्ष्मी का आगमन है, और यदि लक्ष्मी घर आएं तो उनके साथ पवित्रता का व्यवहार करना है।
क्या आज हम अपने जीवन में ज्ञान, अनुभव और तार्किकता को उतना महत्व देते हैं? क्या हम धन कमाते समय उसके स्रोत की पवित्रता पर विचार कर पाते हैं? शायद नहीं। यही वजह है कि हम एक ऐसा समाज बनते जा रहे हैं जो लोभ-लालच, स्वार्थ और नफरत (नफरत का भी आर्थिक पहलू अहम होता है) में डूबता जा रहा है। इस दीपावली पर इन प्रश्नों पर विचार करें, औऱ ‘अंधकार में डूबे’ अंतर्मन को ‘ज्ञान-दीपक’ से प्रकाशित करने की शुरुआत कीजिए। शिवहरेवाणी के सभी पाठकों को दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
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