November 22, 2024
शिवहरे वाणी, D-30, न्यू आगरा, आगरा-282005 [भारत]
समाचार समाज

नीमच में जायसवाल समाज की अनूठी धरोहर, 9.6 बीघा की श्मशान भूमि पर समाज के इतिहास का झरोखा बनीं बुजुर्गों की छतरियां

ऊपर दिया चित्र मध्य प्रदेश के नीमच शहर में अलग से बने जायसवाल समाज की श्मशान भूमि का है जो पूरे देश में अनूठी मिसाल है। नौ बीघा से भी बड़े भूखंड में फैले इस मुक्तिधाम में अपने पूर्वजों की याद में बनवाई गईं छतरियां। 

नीमच।
प्रकृति और शांति का शहर कहे जाने वाले नीमच में यूं तो जायसवाल समाज के बमुश्किल सौ परिवार ही हैं, लेकिन इनके पास बुजुर्गों की एक ऐसी धरोहर है जिस पर कोई भी समाज नाज कर सकता है। यह धरोहर है शहर के बीचोंबीच 9.6 बीघा के विशाल भूखंड में फैला जायसवाल समाज का मुक्तिधाम। इस मुक्तिधाम में वर्षों पुरानी बुजुर्गों की छतरियां शहर में जायसवाल समाज के वैभव और प्रतिष्ठा की स्मारक बन गई हैं। 

आज नीमच शहर में कलार समाज के लगभग 175 परिवार रहते हैं जिनमें सबसे ज्यादा लगभग 100 घर जायसवालों के हैं, बाकी में ज्यादातर चौधरी और कुछेक परिवार पोरवाल, शिवहरे व धनेटवाल सरनेम वाले हैं। आज इनमें अधिकतर परिवार सामान्य बिजनेस कर रहे हैं, कुछ परिवार नौकरियों पर आधारित हैं।  लेकिन, एक दौर ऐसे वैभव का भी था जब इस शहर का एक तिहाई हिस्सा जायसवाल समाज के पास था। नीमच सिटी मार्ग पर बना जायसवाल समाज का विशाल मुक्तिधाम और इसकी भव्यता इस दावे की तस्दीक करती है। हाल ही में जायसवाल समाज ने इसी मुक्तिधाम की भूमि पर एक मंदिर का निर्माण कराकर उसमें भगवान सहस्त्रबाहु की प्रतिमा अखिल भारतीय जायसवाल सर्ववर्गीय महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक जायसवाल (इंदौर) के कर-कमलों से स्थापित कराई थी। 
राजस्थान की सीमा से सटा मध्य प्रदेश का नीमच शहर कभी ब्रिटिश हुकूमत का एक बड़ा छावनी केंद्र हुआ करता था लेकिन इस शहर में जायसवाल समाज का इतिहास इससे भी पहले से शुरू होता है। बताया जाता है कि नीमच आने वाले पहले जायसवाल श्री साहेबलालजी थे जो लखनऊ से अपना शराब का कारोबार लेकर यहां आए थे और यहीं बस गए। यह दौर 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक का रहा होगा जब ईस्ट इंडिया कंपनी कोलकाता को केंद्र बनाकर भारत के बड़े भूभाग पर कब्जा कर चुकी थी। श्री साहेबलालजी के पुत्र अगनुराम व पुत्री महारानी देवी थीं। अगनुरामजी का जन्म 1800 में तथा निधन 15 अप्रैल 1897 में हुआ। लाला अगनुरामजी की याद में इसी श्मशानघाट पर एक छतरी का निर्माण उनके पौत्र फूलचंद ने 1903 में करवाया। इस छतरी पर फूल, पत्तियां, गणेशजी व रिद्धी व सिद्धी, पगलिये, शंख चंद्र आदि आकृतियों की शानदार नक्काशी की गई है। इसी श्मशानभूमि में एक अन्य छतरी स्व. लाला श्री गंगादीनजी की है जिसे उनके पुत्रों बिहारीलालजी, दौलतरामजी और अशर्फीलालजी ने 1887 में बनवाया था। 
लाला अगनुराम और लाला गंगादीन की छतरियां के निकट अगनूरामजी के चार पुत्रों लाला रामसहाय, लाला बलीराम, लाला गणेशीलाल, लाला बदनूराम की चार बहुत सुंदर व कलात्मक छतरियां एक ही चबूतरे पर एक बड़े गुंबद के साथ बनी हैं। इसका निर्माण लाला अगनूराम के पौत्र व लाला बदनूराम के पुत्र लाला फूलचंद जायसवाल ने करवाया था। इस शमशानभूमि के चारों कोनों पर चार शिलालेख हैं। इन शिलालेखों पर दोहे भी अंकित हैं। एक शिलालेख में हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और संस्कृत भाषा में लिखा है कि इसे दिनांक 20 दिसंबर, 1945 को हरीलालजी जायसवाल ने बनवाया, इसके अलावा एक छोटा चबूतरा भी जिसका निर्माण 1950 में श्री अमृतलाल जायसवाल ने अपनी दादी श्रीमती बसंतीबाई पत्नी श्री रामचरण की स्मृति में करवाया है। श्मशानभूमि की पुरानी चारदीवारी आज भी कायम है जिसमें एक 15 फीट लंबे और 15 फीट चौड़े आकार का एक भव्य प्रवेशद्वार बना है, जिसका निर्माण श्री अजीत कुमार जायसवाल ने अपनी माताजी श्रीमती विद्यादेवी की स्मृति में बनाया था। मुख्य प्रवेश द्वार के स्तंभ पर लिखा है ‘कलवार जायसवाल लोगों की श्मशान भूमि’। साथ में एक तुला यानी तराजू भी अंकित है। छतरियों के प्रमुख द्वार के पास शिलालेख लगे हैं जिसमें अक्षर स्पष्ट उभर रहे हैं और आज भी आसानी से पढ़ जा सकते हैं। इन शिलालेखों में कई ऐतिहासिक वर्णन हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा में भी अंकित है। इससे साफ है कि इन छतरियों के निर्माण का मुख्य उद्देश्य पूर्वजों की स्मृति को चिरस्थायी बनाना ही रहा होगा। 
श्मशान भूमि पर शव रखने के लिए एक शव-विश्रांति स्थल 2 फीट चौड़े और 6 फीट लंबे आकार में बना हुआ है। शिलालेख के मुताबिक, इसका (शव-विश्रांति स्थल का) निर्माण डा. पीपी जायसवाल ने स्व. श्रीमती शिवकांता जायसवाल की समृति में कराया। इसी परिसर में गार्डन (बगीचा) भी बनवाया गया है है जिसमें छायादार, फलदार और फूलदार पेड़-पौधे लगे हैं।  लगभग 9.6 बीघा क्षेत्र में फैले इस भूखंड में दो कुएं भीं है। कई वर्षों पूर्व जायसवाल समाज के प्रबुद्ध लोगों एवं युवा वर्ग के सक्रिय श्रम एवं योगदान से यहां 20 फीट बाई 30 फीट का आयताकार लोहे का विशाल टिनशेड में शव-दाहगृह निर्मित किया गया। यहां एक विश्रांति गृह भी है जिसे सुप्रिंटेंडेंट ऑफ पुलिस रहे रायसाहब दौलतरामजी (पेंशनर) ने अपनी माताजी श्रीमती महारानी देवी पत्नी लाला गंगादीन व धर्मपत्नी बसंतीदेवी की स्मृति में 1941 में बनवाया था। कुल मिलाकर इस श्मशानघाट में  1878 से लेकर 1950 के बीच में निर्मित छतरियो, चबूतरों, गेट आदि पर स्थित शिलालेखों में दर्ज तमाम नामों में अब कोई जीवित नहीं है लेकिन यह पूरा परिसर शहर में जायसवाल समाज के गौरवशाली अतीत का झरोखा है। परिसर की हरियाली पर्यावरण को लेकर हमारे पूर्वजों की चेतना को भी दर्शाती है। यहां बड़े-बड़े छायादार और फलदार वृक्ष लगे हुए हैं, पास ही बहती नदी के घाट का रमणिक सौंदर्य लोगों को आकर्षित करता है। 
स्थानीय जायसवाल बुजुर्गों की इस धरोहर को संजोने का प्रयास करता रहता है। उनकी इसी चेतना की वजह से यह धरोहर समाज के पास है। इसके लिए समाज को लंबी कानूनी लड़ाई भी लड़नी पड़ी थी।  दरअसल समाज ने कभी एक गैर-कलार किसान परिवार को यह भूखंड जुताई के लिए दे रखा था, यह सोचकर इस बहाने धरोहर की देखभाल होती रहेगी। लेकिन इसी किसान परिवार ने 1965 में इस विशाल भूखंड पर स्वामित्व का दावा एक अदालत में ठोक दिया। इस पर लंबा मुकदमा चला और अंत में 2018 में जायसवाल समाज के पक्ष में अदालत ने निर्णय दे दिया।
 

 

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