May 15, 2024
शिवहरे वाणी, D-30, न्यू आगरा, आगरा-282005 [भारत]
समाचार साहित्य/सृजन

पितृ-पक्ष और श्राद्ध-कर्म पर क्या कहते हैं हमारे धर्म-ग्रंथ? वे रहस्य जिन्हें जानना आपके लिए जरूरी है..शिवहरेवाणी की विशेष प्रस्तुति

हम और आप जो भी कर्म करते हैं चाहे वह आध्यात्मिक हो या दुनियावी या कुछ और, उसके बारे में पूरी जानकारी होनी ही चाहिए, इस ज्ञान-युग की यह अनिवार्यता है। आज से पितृ-पक्ष शुरू हो गए हैं। इन पंद्रह दिनों में हर हिंदू परिवार में अपने पितरों का श्राद्ध डाला जाता है। इस आलेख में हम आपको इस श्राद्ध कर्म के हर पक्ष से अवगत कराने वाले हैं जिनका उल्लेख उपनिषदों और पुराणों में है। आलेख लंबा हो चला है, आपसे अनुरोध है कि इसे धैर्य के साथ पूरा अवश्य पढ़ेः-

वेदों में यज्ञ के 5 प्रकार बताए गए है-ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, वैश्वेदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ।
उक्त 5 में से एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराण में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है। यह हिंदुओं के 10 कर्तव्यों में से एक है। ये 10 कर्तव्य हैः-
1.संध्योपासन, 2. व्रत, 3. तीर्थ, 4. उत्सव, 5. सेवा, 6. दान, 7. यज्ञ, 8. संस्कार, 9. स्वाध्याय और 10. अभ्यास। 
यज्ञ के अंतर्गत ही श्राद्ध है। श्राद्ध करने का अधिकार सभी को है।
श्राद्ध और तर्पण का अर्थः-
पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं, और तृप्त करने की क्रिया व देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का महात्म उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवड़ा नाम से जानते हैं।
श्राद्ध कर्म के प्रकारः-
नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, पार्वणष संपिडन, गोष्ठ, शुद्धि, कर्मांग, दैविक, यात्रा और पुष्टि।
तर्पण के प्रकारः-
पुराणों में तर्पण को 6 भागों में विभक्त किया गया हैः-
1.देव-तर्पण, 2. ऋषि-तर्पण, 3. दिव्य-मानव-तर्पण, 4. दिव्य-पितृ-तर्पण, 5. यम-तर्पण, 6. मनुष्य-पितृ-तर्पण।
श्राद्ध के नियमः-
श्राद्ध पक्ष में व्यसन और मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। पूर्णतः पवित्र रहकर ही श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। रात्रि में श्राद्ध नहीं किया जाता। श्राद्ध का समय दोपहर 12.30 बजे से 1 बजे के बीच सबसे उपयुक्त माना गया है। कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अन्न का अंश निकालते हैं क्योंकि ये सभी जीव यम के काफी करीबी माने जाते हैं।
पितरों का पितृलोकः-
धर्मशास्त्रों के अनुसार, पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्षों तक मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति में रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। 
अन्न से शरीर तृप्त होता है, अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।
पितरों का आगमनः-
सूर्य की सहस्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है, उसका नाम ‘अमा’ है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करता है। उसी अमा की तिथि विशेष को चंद्र (वस्य) का भ्रमण होता है, तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्व भाग से पितर धरती पर उतर आते हैं, इसीलिए श्राद्धपक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। 
अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांतिकाल व्यतिपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण आदि समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
सूर्य किरण का नाम अर्यमाः
देसी महीनों के हिसाब से सूर्य के नाम हैः- चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा और फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान ह।
क्यों करते हैं तर्पणः- 
पांच तत्वों से बने इस शरीर में पांचों तत्वों का अपना-अपना अंश होता है। इसमें वायु और जल तत्व सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करने वाला है। चंद्र के प्रकाश से सूक्ष्म शरीर का संबंध है। जल तत्व को सोम भी कहा जाता है। सोम को रेतस इसलिए कहा जाता है कि उसमें सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करने के लिए चंद्र से संबंधित और भी तत्व शामिल होते हैं। तर्पण करते वक्त जल का उपयोग इसीलिए किया जाता है। 
जब व्यक्ति जन्म लेता है तो उसमें 28 अंश रेतस होता है। यह 28 अंश रेतल लेकर ही उसे चंद्रलोक पहुंचना होता है। 28 अंश रेतल लेकर आई महान आत्मा मरने के बाद चंद्रलोक पहुंच जाती है, जहां उससे वहीं 28 अंश रेतल मांगा जाता है। इसी 28 अंश रेतल को पितृ ऋण कहते हैं। चंद्रलोक में वह आत्मा अपने स्वजातीय लोक में रहती है। 
पृथ्वीलोक से उक्त आत्मा के लिए जो श्राद्ध कर्म किए जाते हैं, उससे मार्ग में उसका शरीर पुष्ट होता है। 28 अंश रेतल के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिंड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धा नामक मार्ग का संबंध मध्याह्नकाल में पृथ्वी पर होता है, इसलिए ही मध्याह्नकाल में श्राद्ध करने का विधान है। 
पृथ्वी पर कोई भी वस्तु सूर्यमंडल तथा चंद्रमंडल के संपर्क से ही बनती है। संसार में सोम संबंधी वस्तु विशेषतः चावल और जौ ही है, जौ में मेधा की अधिकता है। धान और जौ में रेतस (सोम) का अंश विशेष रूप से रहता है। आश्विन कृष्ण पक्ष में यदि चावल तथा जौ का पिंडदान किया जाए तो चंद्रमंडल को रेतस पहुंच जाता है, पितर इसी चंद्रमा के ऊर्ध्व देश में रहते हैं। इस रेतस से वे तृप्त हो जाते हैं और उन्हें शक्ति मिलती है।
शास्त्र के अनुसार माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और उच्चारण मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि सोम अर्पित किया जाता है, वह उनको व्याप्त होता है। मान लो वे आत्मा देव योनि प्राप्त कर गई है, तो वह अन्न उन्हें अमृत के रूप में प्राप्त होता है और पितर या गंधर्व योनि प्राप्त हुई है तो वह अन्न उन्हें भोग्यरूप में प्राप्त हो जाता है। यदि वह प्रेत योनि को प्राप्त होकर भटक रहा है तो यह अन्न उसे रुधिर रूप में प्राप्त होता है।।
लेकिन यदि वह आत्मा धरती पर किसी पशु योनि में जन्म ले चुकी है तो वह अन्न उसे तृण रूप में प्राप्त हो जाता है और यदि वह कर्मानुसार पुनः मनुष्य योनि प्राप्त कर गया है तो वह अन्न उन्हें अन्न आदि रूप में प्राप्त हो जाता है। इससे विशेष वैदिक मंत्रों के साथ ऐसे किया जाता है ताकि यह अन्न उस तक पहुंच जाए। फिर चाहे वह कहीं भी किसी भी रूप या योनि में हो।
पितरों का परिचयः-
पुराण के अनुसार, पितरों को मुख्यतः दो श्रेणियों में रखा जा सकता है-दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर वे हैं जो आम जीवधारियों के कर्म को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करते हैं। इनके प्रधान यमराज हैं। अतः यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम-ये 4 इनके मुख्य गण प्रधान हैं।
इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं यथाः अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बर्हिषद, गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही जमात मृत्यु के बाद न्याय करती है।
दिव्य पितर की जमात के सदस्यगणः- अग्निष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नांदीमुख, ये 9 दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं। 
अर्यमाः- आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिती के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण के अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है। 
इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है। जड़-चेतनमयी सृष्टि में शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का ‘हव्य’ और श्राद्ध में स्वधा का ‘कव्य’ दोनों स्वीकार करते हैं। 
एक वायु का नाम है यमः
वेदों में उल्लेख है कि यम नाम की एक प्रकार की वायु होती है। देहांत के बाद कुछ आत्माएं उक्त वायु में तब तक स्थित रहती हैं, जब तक कि वे दूसरा शरीर धारण नहीं कर लेती।
‘मार्कण्डेय पुराण’ के अनुसार दक्षिण दिशा के दिकपाल और मृत्यु के देवता को यम कहते हैं। वेदों में यम और यमी, दोनों देवता मंत्रदृष्टा ऋषि माने गए हैं। वेदों के यम का मृत्यु से कोई संबंध नहीं था, पर वे पितरों के अधिपति माने गए हैं।
यम के लिए पितृपति, कृतांत, शमन, काल, दंडधर, श्राद्धदेव, धर्म, जीवितेश, महिषध्वज, महिषवाहन, शीर्णपाद, हरि और कर्मकर विशेषणों का प्रयोग होता है। अंग्रेजी में यम को प्लूटो कहते ह्। योग के प्रथम अंग को भी यम कहते हैं। दसों दिशाओं के 10 दिकपालों में से एक हैं यम। 10 दिकपाल-इंद्र, अग्नि, यम, नऋति, वरण, वायु, कुबेर, ईश्व, अनंत और ब्रह्मा।
मरने के बाद व्यक्ति की 3 तरह की गतियां होती हैः-
1.उर्ध्व गति, 2. स्थित गति और 3. अधोगति। वेद में उल्लेखित नियमों का पालन करने वाले को उर्ध्व गति प्राप्त होती है। पालन नहीं करने वालों की स्थिर गति होती है और जो व्यक्ति वेद-विरुद्ध आचरण करता है, उसकी अधोगति होती है।
व्यक्ति जब देह छोड़ता है, तब सर्वप्रथम वह सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर जाता है। सूक्ष्म शरीर की शक्ति और गति के अनुसार ही वह भिन्न-भिन्न लोक में विचरण करता है और अंत में अपनी गति अनुसार ही पुनः गर्भधारण करता है।
आत्मा के 3 स्वरूप माने गए हैः-
जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है, उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है, तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं अर्थात जो आत्मा भोग-संभोग के अलावा कुछ भी नहीं सोच-समझ पाती, वह शरीर में रहते हुए भी प्रेतात्मा है और मरने के बाद तो उसका प्रेत-योनि में जाना तय है। तीसरा स्वरूप है सूक्ष्म स्वरूप। मरने के बाद जब आत्मा सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करती है, तब उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं। 
श्राद्ध करना जरूरी हैः-
चाहे वैदिक या पौराणिक रीति से करें लेकिन श्राद्ध करना जरूरी है, क्योंकि आपके पूर्वज आपसे ही मुक्ति की आस लगाए बैठे हैं। उनको जीते-जी तो हो सकता है कि आपने उन्हें निराश किया, तो कम से कम मरने के बाद तो उनकी सेवा की ही जा सकती है।
शास्त्रों का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार, उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है। उन्हें गंधर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष रूप में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है। 
जब पितर यह सुनते हैं कि श्राद्धकाल उपस्थित हो गया है, तो वे एक-दूसरे का स्मरण करते हुए मनोनय रूप से श्राद्धस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में ते हैं तथा पितर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां आते हैं।
विशेषतः आश्विन-अमावस्या के दिन वे दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तब वे श्राप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प-फल और जल-तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्ध विमुख नहीं होना चाहिए। 
गरुण पुराण के अनुसार पितर ऋण मुक्ति हेतुः-
कल्पदेव कुर्वीत समये श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति। आयुः पुत्रान् यशः स्वर्ग कीर्ति पुष्टिं बलं श्रियम्। पशून् सौंख्य धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्। देवकार्यादपि सदा पितृकार्य विशिष्यते।। देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम।।
अर्थात समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है। 
श्राद्ध करने का समय तुरुपकाल बताया गया है अर्थात दोपहर 12 से 3 बजे के मध्य।
श्राद्ध में ब्राह्मण व गाय का बहुत महत्व है।
श्राद्ध के भोजन में बेसन का प्रयोग वर्जित है।
विशेषः- 
श्राद्ध में तर्पण पंचबलि कर्म अवश्य करना चाहिए। सफेद पुष्प व सफेद भोजन काम में लेना चाहिए। सूतक में ब्राह्मण को भोजन नहीं करान चाहिए। केवल गाय को रोटी दें।
सौभाग्यवति स्त्री की मृत्यु पर नियम है कि उनका श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिए, क्योंकि इस तिथि को श्राद्ध पक्ष में अविधवा नवमी माना गया है। 9 की संख्या भारतीय दर्शन में शुभ मानी गई है। संन्यासियों के श्राद्ध की तिथि द्वादशी मानी जाती है। 
शस्त्र द्वारा मारे गए लोगों की तिथि चतुर्दशी मानी गई है। विधान इस प्रकार भी है यदि किसी की मृत्यु का ज्ञान न हो या पितरों की ठीक से जानकारी न हो तो सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्राद्ध किया जाए।
(यह आलेख विभिन्न टिप्पणियों एवं आलेखों के आधार पर तैयार किया गया है। )

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