आगरा।
पहली गाली पर सर काटने की शक्ति होने के बाद भी, यदि 99 और गाली सुनने का सामर्थ्य है, तो वो कृष्ण है। सुदर्शन जैसा शस्त्र होने के बाद भी, यदि हाथ में हमेशा मुरली है तो वो कृष्ण है। द्वारिका का वैभव होने के बाद भी, यदि सुदामा मित्र है तो वो कृष्ण है। मृत्यु के फन पर मौजूद होने पर भी, यदि नृत्य है तो वो कृष्ण है। सर्वसामर्थ्य होने पर भी, यदि सारथी है तो वो कृष्ण है।


आज हम धर्म के इस महानायक का जन्मोत्सव मना रहे हैं। शास्त्र आधारित प्रमाणों के अनुसार, यह भगवान कृष्ण का 5249वां जन्मोत्सव है, वह 125 वर्ष इस पृथ्वीलोक में रहे थे। उनके जीवन का हर प्रसंग, हर कथा, हर बात आज भी हमारी जिंदगी के लिए उतनी ही काम की है, जितनी महाभारत या उसके बाद के समय में रही होंगी। वह सही मायने में मानव इतिहास में मनुष्यता के सबसे बड़े मार्गदर्शक हैं। आइये आज हम जीवन वे सबक और मूल-मंत्र जानतेहैं, जो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन मनुष्य जाति को दिए हैं, जो आपको सही अर्थों में मनुष्य होने की पात्रता प्रदान करते हैंः-


- निश्चल प्रेल ही रिश्तों का आधारः कोरोना काल से गुजरी दुनिया ने पिछले दो सालों में रिश्तों के महत्व को बहुत गहराई से जाना है। परिवार और मित्र, जीवन के लिए कितने जरूरी हैं, ये हर उस आदमी को अच्छे से समझ आया, जिसने कोरोना की त्रासदी को नजदीक से देखा है। भगवान श्रीकृष्ण ने हर रिश्ते का बड़ी शिद्दत से निर्वहन किया है। उनका जीवन बताता है कि मनुष्य के लिए हर वह रिश्ता महत्वपूर्ण है जिसका आधार प्रेम है। भगवान श्रीकृष्ण का जीवन प्रेम का पर्याय है। वे मां, पिता, भाई बलराम, सखा अर्जुन और गोपियों सहित प्रकृति मात्र, यहां तक कि पशु-पक्षियों से भी सदैव प्रेम करते हैं। श्री कृष्ण सिखाते हैं कि निश्छल प्रेम हर क्षण को सुख से भर देता है और पशु-पक्षियों सहित पूरे परिवेश को आनंदमय कर देता है।
- चेहरे से मुस्कराहट कभी जाने न पाएः श्रीकृष्ण का समूचा जीवन संकट, संघर्ष और चुनौतियों की कथा है। उनका जन्म कंस के कारागार में हुआ। जैसे-तैसे नवजात कृष्ण सुरक्षित गोकुल पहुंचाए गए मगर बड़े होने तक पूतना सहित अनेक राक्षसों ने उन पर घात लगाई। जरासंध के भय से उन्हें कुटुंब सहित मथुरा छोड़ द्वारका बसानी पड़ी। महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें उनकी इकलौती बहन सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु की निर्मम हत्या हो गई। गांधारी ने कृष्ण को उनके कुलनाश का शाप दिया और कृष्ण की आंखों के सामने उनका सारा कुटुंब आपस में लड़कर मर गया। मतलब आदि से अंत तक बहुत कुछ अप्रिय व कष्टदायक घटा। बावजूद इसके कृष्ण की आंखों से कभी आंसू न निकले। हर प्रतिकूल परिस्थिति में कृष्ण सदैव मुस्कराते ही रहे। ईश्वर होकर भी साक्षी भाव से द्रष्टा बने सब स्वीकारते हुए सहज बने रहे।श्री कृष्ण सिखाते हैं कि जीवन में कितनी भी प्रतिकूल परिस्थिति क्यों न हो, उसका मुकाबला मुस्कराते हुए ही करना चाहिए।
- स्त्रियों को सम्मान दें, उनकी रक्षा करेंः श्रीकृष्ण स्त्रियों को मान देने व उनकी रक्षा करने में सदैव अग्रणी हैं। वह निर्मल प्रेम के लिए गोपियों के प्रति कृतज्ञ हैं तो जन्मदात्री मां देवकी के साथ ही पालन करने वाली यशोदा की कृपा को पल-पल सादर बखानते हैं। वे भीम को प्रेरित कर जरासंध का वध कराकर बंदी स्त्रियों को मुक्त कराते हैं। सखी द्रौपदी के मान की रक्षा के लिए चीर बढ़ाने का चमत्कार करते हैं तो भांजे अभिमन्यु की मृत्यु के बाद उसकी विधवा उत्तरा का दुख दूर करने के लिए उसके मृत जन्मे पुत्र परीक्षित को पुनर्जीवित कर देते हैं। गुरु सांदीपनि की पत्नी की आज्ञा पर खोए हुए गुरुपुत्र को वापस लाकर ‘गुरुदक्षिणा’ अर्पित करते हैं और क्रोधित गांधारी के कुलनाश के शाप को भी सिर झुकाकर स्वीकार लेते हैं। इसलिए कि कृष्ण स्त्री की महिमा को जानते और मानते हैं। श्री कृष्ण सिखाते हैं कि जिस समाज में स्त्री का सम्मान और उसकी रक्षा होती है, वही मंगलमय उन्नति कर पाता है।
- मित्र की हर प्रकार से सहायता करोः दीनबंधु दीनानाथ श्रीकृष्ण यूं तो सबके मित्र हैं लेकिन उनके जीवन में तीन मित्र अर्जुन, उद्धव व सुदामा की मैत्री जगप्रसिद्ध है। सुदामा गुरुकुल का मित्र है, उद्धव तरुणाई के और अर्जुन द्रौपदी स्वयंवर की पहली मुलाक़ात के बाद अंतिम सांस तक का। श्रीमद्भागवत की कथाएं साक्षी हैं कि गुरुकुल में सुदामा के मुट्ठी भर अन्न को कृष्ण ने किस तरह कृतज्ञता पूर्वक याद रखा और द्वारकाधीश बनने के बाद सुदामा को धनधान्य देकर किस प्रकार मैत्री का ऋण चुकाया। ज्ञान के अहंकार में डूबे उद्धव को प्रेम का पाठ पढ़ाने गोपियों के पास भेजा। अर्जुन से अपने अनन्य प्रेम में कृष्ण, इंद्र से भिड़ गए और खांडववन को जलने दिया। पहले शांतिदूत बनकर कौरव सभा में गए फिर ईश्वर होकर भी महायुद्ध में मित्र के सारथी, संरक्षक व मार्गदर्शक बने। मित्र कर्मपथ से विचलित हुआ तो गीता का उपदेश दिया और युद्ध में विजय के बाद मित्र कहीं अहंकारी न हो जाए, इसलिए युद्ध के बाद ‘अनुगीता’ सुनाई। श्री कृष्ण सिखाते हैं कि संकट में मित्र की सहायता करो, भ्रम में मार्गदर्शन और आवश्यकता पर सहयोग। यह सब नि:स्वार्थ हो और कर्ता भाव से रहित हो तभी सच्ची मित्रता है।
- जीवन में सफलता के पांच मूल मंत्र दिएः विनम्रता से सिद्धि, कठोर परिश्रम, समयानुकूल नीति, सज्जनों का उत्थान और दुष्टों को दंड- जीवन के ये पांच मूल मंत्र भगवान श्रीकृष्ण ने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व के ज़रिए दिए। उन्होंने विनम्रता व सेवाभाव से गुरु सांदीपनि को प्रसन्न कर मात्र 64 दिनों में शिक्षा पाई और विनम्रता से ही जग को जीता। कठोर श्रम से उन्होंने द्वारका बसाई। कृष्ण-सा नीतिज्ञ मनुष्यता के इतिहास में दुर्लभ है। जब जरासंध से लड़ना संभव न था तब द्वारका की राह ली और भीम का बल पाते ही उसे मरवा दिया। पाण्डवों की भांति दुर्योधन भी उनका सम्बंधी था मगर उसके अधर्म की राह पर होने से कृष्ण ने धर्मपथिक पाण्डवों की सहायता कर सज्जनों के उत्थान का संदेश दिया। कृष्ण परम क्षमाशील हैं किंतु दुष्टों को दण्ड देने में संकोच और विलम्ब नहीं करते। बचपन में अनेक राक्षसों के वध के अलावा कंस, शिशुपाल, शाल्व से लेकर उनकी प्रेरणा से किए गए दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण व शकुनि के वध उनकी इसी कल्याणकारी दण्ड नीति के उदाहरण हैं।
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